यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १४ ]


सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सआनी है जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हैं समुझाइ कछू मुसुकाइ चली॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं सवै अवलोकति लोचन-लाहु अली।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै विगसीं मनो मंजुल कंज कली॥२॥
दूसह श्रीरघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि, वेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाहीं।
याते सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारति नाहीं॥३॥

करूणा


पुर तें निकसी रघुबीर-बधू, धरि धीर दये सग में डग द्वै।
झलकीं भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराधर वै॥
फिरि बुझति हैं चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित ह्वै।
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै॥

रौद्र


गर्भ के अर्भक काटन कों पटु धार कुठार कराल है जाको।
सोई हौं बूझत राजसभा "धनु को दल्यौ," हौं दलिहौं बल ताको॥
लघु आनन उत्तर देत बड़ो लरिहै, मरिहै करिहै कछु साको।
गोरो, गरूर गुमान भरो, कहौ कौसिक छोटो सो ढोटा है काको॥

हास्य


बिंध्य के बासी उदासी तपाब्रत-धारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतम तीय तरी, तुलसी, सो कथा सुनि भे मुविवृन्द सुखारे॥
ह्वैहैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद-मंजुल-कंज़ तिहारे।
कीन्ही भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे॥

शान्त


न मिटै भवसंकट दुर्घट है तप तीरथ जन्म अनेक अटो।
कलि में न विराग न ज्ञान कहूँ सब लागत फोकट भूँँठ जटो॥
नट ज्यों जनि पेट कुपेटक कोटिक चेटक कौतुक ठाट ठटो।
तुलसी जो सदा सुख चाहिय तो रसना निसि-बासर राम रटो॥