यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५२
कवितावली

अर्थ—कौन ऐसे हैं जो की भौंह रूपी कमान के ठने हुए चितवन रूपी बाणसंधान से बचे, कोर रूपी अग्नि और गुमान के अँवा से जिलके मन रूपी घड़ा में आँच न लगै, जैसे नर बंदर को नचाता है वैसे लोभ के वश जो जग में बहुत नाच न नाचे हो? हे तुलसी, सभी साधु भले हैं परंतु उनमें भी वही अच्छे हैं जो रघुवीर के सच्चे सेवक हैं।

घनाक्षरी
[२६१]


भेष सुबनाइ, सुचि बचन कहैं चुवाइ*,
जाइ तौ न जरनि धरनि धन धाम की।
कोटिक उपाइ करि लालि पालियत देह,
मुख कहियत गति राम ही के नाम की॥
प्रगटै उपासना, दुरावै दुरवासनाहिं
मानस निवास-भूमि लोभ मोह काम की।
राग रोष ईरषा कपट कुटिलाई भरे
तुलसी से भगत भगति चहैं राम की!॥

अर्थ— अच्छा वेश बनाकर और धीरे-धीरे अमृत से मीठा वचन बोलकर भी धन, पद और भूमि की इच्छा से उत्पन्न जलन नहीं जाती। करोड़ों उपाय करके देह को पाला जाता है और मुँह से यह कहा जाता है कि रामनाम ही की गति है। दिखाने को तो उपासना (भक्ति) करते हैं और बुरी बुरी इच्छाओं को उस मन में छिपाते हैं जो कि लोभ, मोह और काम के रहने की भूमि है; राग, रोष, ईर्ष्या और छल-कपट से भरे हुए तुलसी से भक्त, राम की भक्ति की इच्छा करते हैं सो कहाँ मिल सकती है?

[२६२]


“काल्हि ही तरुन तन, काल्हि ही धरनि धन,
काल्हि ही जितोंगो रन कहत कुचालि है।


*पाठान्तर—चुपाइ।