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१५०
कवितावली

१५० कवितावली अर्थ-माया-मुद्र के मारनेवाले ! जय। गीध और शबरी का उद्धार करनेवाले ! जय । कबन्ध को मारनेवाले और बड़े वाल वृक्षों को वेधनेवारहे ! जय । बली बालि को नष्ट करनेवाले और संतों के हित करनेवाले, सुग्रीव को स्थापन करने वाले ! जय । विकराल बन्दरों और रीछों की सेना के पालक, हे कृपाल चित्त ! जय । सीताजी के वियोग के दुःख को दूर करने के लिए समुद्र में सेतु (पुल ) बांधनेवाले ! जय । हे दशशीश का नाश करनेवाले, हे विभीषण को अभय करनेवाले अथवा रावण के भय से खुरे हुए विभीषण को अभय करनेवाले, हे जानकी-रमण ! जय, जय। [ २५७ ] कनक कुधर केदार, बीज सुंदर सुर-मनिवर । सीचि काम-धुक धेतु सुधामय पय बिसुद्ध तर ॥ तीरथ-पति अंकुर-सरूप, यच्छेस रच्छ तेहि । मरकत मय साखा, सुपत्र मंजरिय लच्छ जेहि ॥ कैवल्य सकल फल कल्पतरुसुभ सुभाव सब सुख बरिस । कह तुलसिदासरघुबंसमनि ता कि होहि तब कर सरिस ॥ अर्थ-सोने के पहाड़ (सुमेरु) का केदार (थाल्हा) हो, सुंदर सुरमनिवर (चिंता- मणि) का बीज हो और उसे देवता और श्रेष्ठ मुनि कामधेनु के अति पवित्र अमृत- मय दूध से सींचें, और तीर्थपति अंकुर स्वरूप उससे उत्पन्न हों, यक्षेश (कुवेर) उसकी रक्षा करें, मानिक और मुक्तादिक मणि उस वृक्ष के शाखा और पल्लव हो और लक्ष्मी मन्जरी हो, ऐसा कैवल्य और संपूर्ण फलों का देनेवाला कल्पतरु सुंदर स्वभाव से सब सुख का बरसानेवाला हो तब भी, तुलसीदास कहते हैं, क्या वह रामचन्द्र के हाथ के समान हो सकता है ? [२५८] जाय से सुभट समर्थ पाइ रन रारि न मडै । जाय सो जती कहाइ बिषय-वासना न छडै ॥ जाय धनिक बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महिं । जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महिं ॥