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उत्तरकाण्ड

अर्थ—जय लाड़ुका और सुभाहु के मथनेवाले, जय मारीच के मान को हरनेवाले, मुनि के यज्ञ की रक्षा करनेवाले, शिला-रूप अहिल्या को तारनेवाले, करुणा के करनेवाले जय। जय राजाओं के बल और मद को शंभु के धनुष के साथ तोड़नेवाले, आनंद देनेवाले, जय परशुराम के दर्प (ग़रूर) को नाश करनेवाले, जय-जय सूर्यकुल के आभूषण, जय मिथिला को सुख के समुद्र, सुंदरता के घर, तुलसीदास कहते हैं जय! देवताओं में मुकुट मणि (श्रेष्ठ) जय! जय, जानकी-रमण जय।

[ २५५ ]


जय जयंत-जय-कर, अनंत, सज्जन-जन-रंजन।
जय विराध-बध-बिदुष, बिबुध-मुनिगन-भय-भंजन॥
जय निसिचरी विरूप - करन रघुबंस - विभूषन।
सुभट-चतुर्दस-सहस-दलन त्रिसिरा खर-दूषन॥
जय दंडकबन-पावन-करन तुलसिदास संसय-समन।
जग विदित जगत-मनि जयति जय जय जय जयं जानकिरमन॥

अर्थ—जयन्त को जीतनेवाले, तुम्हारी जय। हे अनन्त! हे सजने को प्रसन्न करनेवाले! जय, विराध के मारने की रीति को जाननेवाले, जय। देवता और मुनियों के भय को नष्ट करनेवाले, जय। राक्षसी (शूर्पनखा) को कुरूप करनेवाले, जय! हे रघुवंशियों में अलंकार जय! चौदह हज़ार योधाओं सहित खर-दूषण और त्रिशिरा को मारनेवाले जय! दण्डक वन को पवित्र करनेवाले और तुलसीदास के सन्देहों को दूर करनेवाले, जय। जग में प्रसिद्ध जगत् के मणि, जय! हे जानकी-रमण जय।

[२५६]


जय माया-मृग-मथन गीध - सबरी - उद्धारन।
जय कबंध-सदन बिसाल-तरु-ताल - बिदारन॥
दवन-बालि-बल-सालि, थपन सुग्रीव संत हित।
कपि-कराल-भट-भालु कटक-पालन, कृपालु-चित॥
जय सिय-बियोग-दुख-हेतु-कृत-सेतु-बंध बारिधि-दमन।
दससीस विभीषन-अभय-प्रद जय जय जय जानकि-रमन॥