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कवितावली


साधु कै असाधु, के भला कै पोच, सोच कहा, काहूके द्वार परौं जो हैं। सा हैंराम को ॥ अर्थ--मेरी कोई जाति-पाँति नहीं है, और न मैं किसी की जाति-पाँति चाहता हूँ: न कोई मेरे काम का है, न मैं किसी के काम का; लोक-परलोक सब रामचन्द्र के हाथ है। तुलसी को एक राम नाम ही का भारी भरोसा है। लोग बड़े बेशऊर हैं जो इस कथा को नहीं जानते हैं कि साह ( मालिक ) का गीत ही गुलाम का गोत होता है। साधु हूँ तो, असाधु हूँ तो, भला हूँ या बुरा, किसी को क्या मतलब ? क्या मैं किसी के दरवाजे पर पड़ा हूँ ? जो हूँ, राम का हूँ। [२५० ] कोऊ कहै करत कुसाज दगाबाज बड़ो, कोऊ कहै राम को गुलाम खरो खूब है। साधु जानै महासाधु, खल जाने महाखल, बानी झूठी साँची कोटि उठत हबूब है ॥ चाहत न काहू सों, न कहत काहू की कछु, सबकी सहत उर अंतर न ऊब है। तुलसी को भलो पोच हाथ रघुनाथ ही के, राम की भगति भूमि, मेरी मति दूब है ॥ अर्थ-बाज़ लोग कहते हैं कि मैं बड़ा दगाबाज़ हूँ, कुसाज अर्थात् धोखा देने को बुरी सामग्रो इकट्ठा करता हूँ, और बाज़ लोग कहते हैं कि खूब रामचन्द्र का भक्त हूँ; मुझे साधु भला जानते हैं, खल महाखल, करोड़ों तरह की झूठी-सच्ची बातें मेरे लिए पानी फैसे बुदबुदे की सरह उठती हैं (कही जाती हैं)। न मैं किसी से कुछ चाहता हूँ, और न किसी से कुछ कहता हूँ, सब की सहता हूँ। मेरे मन में कुछ अब नहीं है यानी सहते-सहते थका नहीं हूँ। तुलसी का भला और बुरा रघुनाथ के हाथ है, राम की भक्ति रूपी दूब मेरी देह रूपी भूमि में सब जगह विद्यमान है।

  • पाठान्तर-सब