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उत्तरकाण्ड

धर्म सबै कलिकाल ग्रेस, जप जोग विराग लै जीव पराने।
को करि सोच मरै, तुलसी, हम जानकीनाथ के हाथ बिकाने॥

अर्थ―वेद, शास्त्र, और पुराण करोड़ो धर्म के मार्गो का वर्णन करते हैं जिनका कुछ पता नहीं चलता; जो मुनियों के समूह हैं वे अपने आप को ईश्वर, सिद्ध और सयाने कहलवाते हैं। जितने धर्म हैं उन सबको कलियुग ने पकड़ रक्खा हैं, और जप और योग सब अपने अपने प्राण लेकर भाग गये हैं। तुलसी कहते हैं कि शोच करके कौन मरै, हम तो श्रीरामचन्द्रजी के हाथ बिक चुके।

[ २४८ ]

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
का की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ*।
माँगिके खैबो मसीत† को साइबो लैबे को एक न देवे को दोऊ॥

अर्थ―चाहे कोई धूर्त बतावे या अवधूत (फ़क़ीरर) कहै या रजपूत कहै, किसी की लड़की से मुझे लड़का ब्याहकर उसकी जात नहीं बिगाड़ना है। तुलसी तो राम का गुलाम प्रसिद्ध है, जिसका जो जी चाहे सो कहै; माँगकर खाता है, मज़े से सोता है। उसे न लेना एक है न देना दो। (अन्य पाठ मजीत को सोइबो अर्थात् मसजिद जहाँ सब की गम्य है ऐसे स्थान पर सोना।)

घनाक्षरी

[ २४९ ]

मेरे जाति पाँति, न चहौं काहू की जाति पाँति,
मेरे कोऊ काम को न हौं काहू के काम को।
लोक परलोक रघुनाथ ही के हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसी के एक नाम को॥
अति ही अयाने उपखानो नहिं बूझैं लोग,
साहही को गोत गोत होत है गुलाम को।



*पाठान्तर―सोज।
†पाठान्तर―मजीत।