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परन्तु यह कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। नररूप हरि गुरु का विशेषण माना जा सकता है। कवितावली से तो केवल इतना पता चलता है कि इनके गुरु कोई रामानन्दी थे। तुलसीदास अपने गुरु के पास बालकपन ही में पहुँच गये थे। माता-पिता से तजे जाने पर जिस समय "नीच, निरादर-भाजन, कादर कूकर टूकनि लागि" लालायित फिरते थे उसी समय "राम सुभाउ सुन्यो तुलसी" अर्थात् बालकपन ही में 'रामचर्चा' इनको सुनाई पड़ गई थी। उसी समय 'प्रभु सों' 'बारक पेट खलाई 'कह्यौं' से तात्पर्य मालूम होता है कि पेट के अर्थ भीख माँगने गये थे, पर वहीं रह गये। क्योंकि 'रघुनाथ से साहब' ने स्वार्थ (भोजन) और परमार्थ (राम-भक्ति) दोनों के देने में 'खोरि न लाई'। माँगने गये थे भीख, पा गये स्वार्थ और परमार्थ दोनों। कदाचित् किसी बड़े रामानन्दी साधु के यहाँ बालकपन ही में जाने से साधु की कृपा से वहीं रहने और रामकथा सुनने लगे, जिससे अनन्य भक्त होकर इतना बड़ा यश प्राप्त किया। यही अभिप्राय मानस में यह लिखने से ज्ञात होता है कि "मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सु सूकरखेत, समुझि परी नहिँँ बालपन तब अति रहेउँ अचेत"। अब प्रश्न होता है कि यह 'रघुनाथ' से 'साहब' रामानन्दी साधु कौन और कहाँ के थे और तुलसीदास से उनसे कहाँ भेट हुई। कवितावली में इन प्रश्नों के उत्तर के लिए कुछ सामग्री नहीं है। कोई-कोई लोग 'सूकरखेत' को सोरों बताकर बड़ी व्याख्या करते हैं। परन्तु यदि 'मणिकर्णिका घाट' 'नीमसार' में और 'हरिद्वार' 'काशी' में और 'सीता-कुण्ड' 'खेरी' में हो सकता है तो कहीं पर भी 'सूकरखेत' होना सम्भव है। घाटों के नाम से स्थानों का नाम निश्चित नहीं हो सकता।

कुछ हो, जब तक कोई और अच्छा प्रमाण नहीं मिलता तब तक तुलसीदासजी की जीवनी ऐसी ही संदिग्ध अवस्था में रहेगी। जो जिसको सूझता है वही वह लिखता है और फिर एक बात की पुष्टि के लिए अनेक कथाएँ खोज निकालता या पैदा करता है। हमारी समझ में तो सबको छोड़कर तुलसीदास के अपने कहे हुए पर ही उसे आश्रित रखना चाहिए, जब तक कुछ प्रमाण और न मिले।


ग्रन्थ-प्रशंसा

तुलसीदास के अन्यों में रामचरितमानस को छोड़कर कवितावली को सर्वोच्च नहीं तो एक उच्च पद अवश्य प्राप्त है। छन्दों के बाहुल्य तथा कविता की शैली के कारण वह कविता-प्रेमियों की प्रीति-भाजन तो है ही, परन्तु तुलसीदास के जीवन-