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कवितावली
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बबुर बहेरे को बनाइ बाग लाइयन,
रूँधिवे को सोइ सुरतरु काटियत है।
गारी देत नीच हरिचन्द ह दधीचि हूँ को,
आपने चना चबाइ हाथ चाटियत है॥
आप महापातकी हँसत हरि हरहू को,
आपु है अभागी भूरिभागी डाटियत है।
कलि को कंलुष मन मलिन किये महत*,
मसक की पाँसुरी पयोधि पाटियत है॥

अर्थ—बबूल और बहेरे का बाग़ बना-बनाकर लगाया जाता है और उसके रूँधने के लिए (काँटें की जगह) कल्पवृक्ष काटा जाता है। हरिश्चन्द्र और दधीचि को भी नीच गाली देते हैं, यद्यपि अपने चना चबाकर हाथ चाटते हैं (चना भी पेट भर नहीं पाते हैं)। खुद महापापी हैं, किन्तु विष्णु और महादेव की भी हँसी उड़ाते हैं। स्वयं अभागे हैं, परन्तु भाग्यवानों को डाटते हैं। कलियुग पापी ने मन ऐसे मैले किये हैं कि मच्छड़ की पसुरियों से समुद्र पाटते हैं।

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सुनिये कराल कलिकाल भूमिपाल तुम!
जाहि घालो चाहिए कहौ धौं राखै साहि को।
हौं तौ दीन दूबरो, बिगारों ढारों रावरो न,
मैं हूँ तैं हूँ ताहि को सकल जग जाहि को॥
काम कोह लाइ कै† देखाइयत भाँखि मोहिं,
एते मान अकस कीबे को आपु आहि को?।
साहिब सुजान जिन स्वान हूँ को पच्छ कियो,
रामबोला नाम, हौं गुलाम राम साहि को॥



*पाठान्तर—कहत।
†पाहान्तरको—को हलाइ।