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उत्तरकाण्ड

दारिद-दसानन दवाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥

अर्थ—किसान को खेती नहीं है, न भिखारी को भीख मिलती है, न बनिये का व्यापार है और न नौकर की नौकरी है। जीविका से हीन लोग पीड़ित होकर शोच में पड़े रहते हैं और परस्पर यही कहते हैं कि क्या करें? कहाँ जायँ? वेद और पुराण में भी कहा है और संसार में भी दिखाई देता है कि संकट में, हे राम! आप ही कृपा करते हैं। अब दुनिया को दरिद्र-रूपी रावण ने दबा लिया है, हे दीनबन्धु! आयको पापों से बचानेवाला देखकर तुलसी खुशामद करता है (जल्द बचाओ)।

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कुल, करतूति, भूति, कीरति, सुरूप, गुन,
जोबन जरत जुर,* परै न कल कहीं।
राज काज कुपथ कुसाज, भोग रोग ही के,
बेद-बुध बिद्या पाइ बिबश बलकहीं॥
गति तुलसीस की लखै न कोउ जो करत,
पब्बइ तें छार, छारै पब्बइ† पलकहीं।
कासों कीजै रोष? दोष दीजै काहि? पाहि राम!
कियो कलिकाल कुलि खलल खलकहीं॥

अर्थ—कुल, काम, ऐश्वर्य, कीर्ति, स्वरूप, गुण और यौवन के मद-रूपी ज्वर में (संसार के सब जीव) जल रहे हैं, कहीं कल नहीं पड़ती। राज-काज ही कुपथ्य और कुलाज है, भोग रोग (ज्वर) के बढ़ाने के लिए ही होता है। वेद पढ़कर और विद्या पाकर पण्डित व्यर्थ ही वाद करते हैं। तुलसीश (राम) की गति को कोई नहीं देखता, जो क्षण में वज्र से क्षार और क्षार से वज्र करते हैं। किस पर क्रोध किया जावे और किसे दोष दिया जावे, हे राम! आप ही बचाइए, कलियुग ने सब संसार ही में गड़बड़ो मचा दी है।



*पाठान्तर—परत न कछू कही।
पाठान्तर—तुरत पविसो करत चार पवि सो।