यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३१
उत्तरकाण्ड


गरूर है न धन का। राम ही के नाम से जो होता है वह मुझे अच्छा लगता है। तुलसी के मन का कुछ ऐसा ही स्वभाव हो गया है।

शब्दार्थ--न तमाइ जोग= न योग की तमअ (लालच) है अथवा न तमअ (लालच करने) के योग्य है।

[२२०]


ईस न, गनेस न, दिनेस न, धनेस न,
सुरेस सुर गौरी गिरापति नहिं जपने।
तुम्हरेई नाम को भरोसो भव तरिबे को,
बैठे उठे जागत बागत सोये* सपने॥
तुलसी है बावरो सो रावरोई, रावरी सौं,
रावरेऊ जानि जिय कीजिए जु अपने।
जानकी-रमन मेरे! रावरे बदन फेरे,
ठाउँ न समाउँ कहाँ सकल निरपने॥

अर्थ—न ईश, न गणेश, न सूर्य्य, न कुबेर, न इन्द्र, न देवता, न पार्वती और न शिव को जपता हूँ। दुनिया से तरने के लिए तुम्हारे ही नाम का भरोसा है। बैठते-उठते, जागते-फिरते, सोते और सपने में यदि तुलसी बावला है तो भी तुम्हारा है। आपकी कसम यह जानकर अपने मन में आप भी उसे (उसका स्थान) कीजिए, अथवा यह अपने मन में जानकर (अपने दासों) में कीजिए अर्थात् अपनाइए। हे मेरे जानकी नाथ! आपके मुँँह फेर लेने से ऐसे निपट अकेले का न कहीं ठिकाना है, न कोई सँभालनेवाला है। सब निरपने अर्थात् बिराने हैं।

[२२१]


जाहिर जहान में जमानो एक भाँति भयो,
बेचिए बिबुध-धेनु रासभी बेसाहिए।
ऐसेऊ कराल कलिकाल में कृपालु तेरे
नाम के प्रताप न त्रिताप तन दाहिए॥



* पाठान्तर—सुख।