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कवितावली

दास हो यह बात समझने ही योग्य है, उससे कहना व्यर्थ है। राम का दास होकर ऐश की ऐसा हुआ अर्थात् इनका बड़ा नाम हो गया; क्या ऐसा कभी बंदरों के रक्षक (राम) को बिना भजे हो सकता है?

[ १९९ ]

मातु पिता जग जाय तज्यो, बिधिहू न लिखी कछु भाल भलाई।
नीच, निरादर-भाजन, कादर, कूकर टूकन लागि ललाई॥
राम सुभाउ सुन्यो तुलसी, प्रभु सों कह्यो बारक पेट खलाई।
स्वारथ को परमारथ को रघुनाथ सो साहब खोरि न लाई॥

अर्थ―माता पिता ने संसार में उत्पन्न करके त्याग दिया और ब्रह्मा ने भी भाग्य में कुछ भलाई नहीं लिखी। नीच और अनादर का पात्र, कायर, कुत्ते की तरह टूक पर लालच करनेवाला तुलसी था। उसने राम का सुभाव सुना और प्रभु से एक बार पेट खल्लाकर (देखाकर) कहा सो स्वारथ और परमारथ के देने में रघुनाथ ने कुछ कसर न रक्खी।

[ २०० ]

पाप हरे, परिताप हरे, तन पूजि भो हीतल सीतलताई।
हंस कियो बक ते बलि जाउँ, कहाँ लौं कहौं करुना अधिकाई॥
काल बिलोकि कहै तुलसी मन में प्रभु की परतीति अघाई।
जन्म जहाँ तहँ रावरे सों निबहै भरि देह सनेह सगाई॥

अर्थ―पाप हरे गये और दुख मिट गया, मेरी देह की पूजा हुई और हृदय ठण्डा हो गया। मैं कहाँ तक दया की अधिकता को कहूँ कि आपने बगुले से मुझे हंस किया, अपना समय देखकर अथवा अन्त काल समझकर तुलसी मन में प्रभु पर पूर्व विश्वास रखकर कहता है कि जहाँ कहीं भी जन्म हो वहाँ आप ही से सदा सनेह निबाहनेवाली देह मिलै।

[ २०१ ]

लोग* कहैं अरु हौं हूँ कहैं?, 'जन खोटो खरो रघुनायक ही को'।
रावरी राम बड़ी लघुता, जस मेरो भयो सुखदायक ही को॥


*पाठान्तर―लोक