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उत्तरकाण्ड

ठांकि बजाय लखे गजराज, कहाँ लौं कहौं केहि सों रद काढ़े!।
आरत के हित, नाथ अनाथ के, राम सहाय सही दिन गाढ़े॥

अर्थ―अपने तपस्वी भक्तों को वर देनेवाले सब देव हैं, फिर बढ़ने पर (उन्नति होने पर) वैर बढ़ाते हैं। वह थोड़े ही में कृपा करनेवाले और थोड़े ही में क्रोध करनेवाले हैं, थोड़े ही में बैठकर मित्रता जोड़ते हैं और थोड़े ही में खड़े खड़े तोड़ते हैं। गजराज ने यह बात जाँच परताल ली थी, कहाँ तक कहूँ, किससे कहूँ और किसके सामने दाँत निकालूँ अर्थात् किसकी खुशामद करूँ? आरत के मित्र, अनाथ के नाथ, राम ही मुसीबत में सहायक होते हैं।

[ १९७ ]

जप, जोग, बिराग, महा मख-साधन, दान, दया, दम कोटि करै।
मुनि, सिद्ध, सुरेस, गनेस, महेस से सेवत जन्म अनेक मरै॥
निगमागम, ज्ञान पुरान पढ़ै, तपसानल में जुग-पुंज जरै।
मन सों पन रोपि कहै तुलसी रघुनाथ बिना दुख कौन हरै?॥

अर्थ―जप, योग, वैराग्य, यज्ञ-साधन, दान, दया, दम करोड़ों करे; मुनि, सिद्ध, इन्द्र, महेश, गणेश की सेवा करते अनेक जन्म तक मरा करे; वेद, शास्त्र, ज्ञान, पुराण पढ़े और तप की अग्नि में युगों तक जला करे। मन से तुलसी प्रण करके कहता है कि राम के बिना दुख का हरनेवाला कोई नहीं है।

[ १९८ ]

पातक पीन, कुदारिद दीन, मलीन धरै कथरी करवा है।
लोक कहै बिधिहू न लिख्यो, सपनेहू नहीं अपने बरवा है॥
राम को किंकर सो तुलसी समुझेहि भलो कहिवो न रवा है।
ऐसे को ऐसे भयो कबहूँ न भजे बिनु बानर के चरवाहै॥

अर्थ―तुलसीदास महापापी और दरिद्री, दुखी, फटे मैले कपड़े पहने और करवा (मिट्टी का लोटा) लिये था। लोग कहते थे कि ब्रह्मा ने स्वप्न में भी (भूलकर भी) कुछ इसके भाग्य में नहीं लिखा है अथवा ब्रह्मा ने भी भाग्य में कुछ नहीं लिखा और स्वप्न में भी अपने सिर का बाल तक अपना नहीं है अथवा न ब्रह्मा ने ही भाग्य में लिखा न अपने बाहुओं ही का बल है। ऐसा तुलसी भी राम का