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कवितावली
[ १७० ]

जग जाँचिए कोउन;जाँचिए जौ*,जिय जाँचिए जानकी-जानहि रे।
जेहि जाँचत जाँचकता जरि जाइ जो जारति† जोर जहानहि रे॥
गति देखु बिचारि बिभीषन की, अरु आनु हिये हनुमानहि रे।
तुलसी भजु दारिद-दोष-दवानल, संकट-कोटि-कृपानहि रे॥

अर्थ—जग में किसी से न माँगना चाहिए। जो माँगना ही है तो हृदय में जानकीनाथ से माँगो, जिससे माँगने पर माँग स्वयं नष्ट हो जाती है और जो दुनिया को ज़ोर से जलाती है अथवा दुनिया का सब सामान इकट्ठा करते हैं अथवा जो जहान के ज़ोर को जला देते हैं अर्थात् भव-फन्द काट देते हैं। विभीषण की गति को विचार कर देखो और हनुमान को हृदय में लाना अर्थात् उनका ध्यान धरो। हे तुलसी! दारिद्रा-दोष को अग्नि-रूप और संकट को कोटि तलवार के समान अथवा करोड़ों संकटों को काटने के लिए तलवार के समान रामचन्द्र का भजन कर।

[१७१]


सुनु कान दिये नित नेम लिये रघुनाथहि के गुनगाथहिँ रे।
सुख-मंदिर सुंदर रूप सदा उर आनि धरे धनुभाथहिँ रे॥
रसना निसि बासर सादर सो तुलसी जपु जानकीनाथहिँ रे।
करु संग सुसील सुसंतन सों तजि कूर कुपंथ कुलाथहिँ रे॥

अर्थ—सदा राम के गुणों की कथा को नेम से कान देकर सुना कर। सदा धनुष और तरकस लिये, सुख के मन्दिर (राम) के सुन्दर स्वरूप को हृदय में ला। हे तुलसी, जिह्वा से दिन-रात आदर सहित जानकीनाथ का नाम जप। कूर (बुरे जन), बुरी राह और बुरे संग को छोड़कर सुशील और संतों का संग कर।

[१७२]


सुत, दार, अगार, सखा, परिवार विलोकु महा कुसमाजहि रे।
सबकी ममता तजिकै, समता सजि संतसभा न बिराजहि रे॥



*पाठान्तर—तो।
†पाठान्तर—ओरत।