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कवितावली

तुलसीऔ तारिबो विसारिबो न, अन्त मोहिं,
नीके हैं प्रतीति रावरे सुभाव सील की।
देव तौ दयानिकेत, देत दादि दीनन की,
मेरी बार मेरे ही अभाग नाथ ढोल की॥

अर्थ―पूत का पवित्र नाम लेने से पातकी अजामिल को पापरहित किया और हाथी का कष्ट "प्रभु पाहि" कहते ही नष्ट कर दिया। जाति-पाँति की छोटी, निगोड़ी, छलियों की लड़की भील की स्त्री (शवरी) को अपने में लीन कर लिया। "तुलसी को भी तारना है" यह भूलिए मत। अन्त में मुझे भी अच्छी तरह आपके स्वभाव और शील पर भरोसा है। देव! आप तो दया के घर हैं। दीनों की दादि (फ़रियाद) देते हैं (इन्साफ़ कर देते हैं)। यह मेरा ही दुर्भाग्य है कि मेरी बार ढील डाल दी है।

[ १६१ ]

आगे परे पाहन कृपा, किरात, कोलनी,
कपीस, निसिचर अपनाये नाये माथ जू।
साँची सेवकाई हनुमान की सुजानराव,
ऋनियाँ कहाये हौ विकाने ताके हाथ जू॥
तुलसी से खेटे खरे होत ओट नाम ही की,
तेजी* माटी मनहू की मृग मद साथ जू।
बात चले बात को न मानियो विलग, बलि,
काकी सेवा रीझिकै नेवाजो रघुनाथ जू?॥

अर्थ―आगे पड़े पत्थर (अहिल्या) को, किरात को, कोलनी (शवरी) को, कपीश (सुग्रीव) को, राक्षस (विभीषण) को, कृपा करके माथ नाय (सिर नीचा करके अर्थात् सकुच सहित) अपनाया; अथवा ऊपर बताये हुए सबको अपनाया जिन्होंने माथा नवाया था अर्थात् जो आपकी शरण आये थे। सच्ची सेवकाई हनुमान की देखकर, हे सुजानों के श्रेष्ठ! आप उनके क़र्ज़ी कहाये, उनके हाथ बिक गये। नाम की ओट लेते ही तुलसीदास से ऐबी भी भले हो जाते हैं; जैसे कस्तूरी के साथ में रास्ते की मिट्टी भी महँगी बिक जाती है। बात चलने पर कहता हूँ, बुरा न मानना; पर किसकी सेवा


  • पाठान्तर―महँगी।