यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८४
कवितावली

कूदत कबंध के कदंव बबली करत,
धावत दिखावत है लाघौ राघौ बान के।
तुलसी महेस, विक्षि, लोकपाल, देवगन
देखत बिमान चढ़े कौतुक मसान के॥

अर्थ―जिनके अंग अंग दले हुए हैं, जो किंशुक (पलास) के फूल कैसे लाल लाल खिले हैं वह रावण के लाखों योधा लक्ष्मण के मारे हुए हैं। जो मारे और पछाड़े हुए हैं, जिनकी भुजाएँ उखड़ी हुई हैं और जो टुकड़े-टुकड़े करके नष्ट किये हुए हैं वे हनुमान् के विदारे हुए हैं। जो धड़ों के समूह उछल रहे हैं, बम्ब सी कर रहे हैं, वे रामचन्द्र जी के बाणों की तेज़ी को दिखा रहे हैं अर्थात् श्री रामचंद्र जी के मारे हुए हैं। तुलसीदास कहते हैं कि ब्रह्मा, लोकपाल, महादेव, देवता लोग विमानों पर चढ़े श्मशान के तमाशे को (लड़ाई में) देख रहे हैं।

[ १३३ ]

लोथिन से लोहू के प्रवाह चले जहाँ तहाँ,
मानहुँ गिरिल गेरु-झरना झरत हैं।
सोनित सरित* धोर, कुंजर करारे भारे,
कूल ते समूल बाजि-बिटप परत हैं॥
सुभट सरीर नीर चारी भारी भारी तहाँ,
सूरनि उछाह, कूर कादर डरत हैं।
फेकरि फेकरि फेरु फारि फारि पेट खात,
काक कंक-वालक† कोलाहल करत हैं॥

अर्थ―लोथों से जहाँ तहाँ लोहू की नदियाँ बह चलीं, मानों पहाड़ों से गेरू के झरना झर रहे हैं। इस लोहू की घोर नदी के भारी-भारी हाथी करारे हैं, और घोड़ा मानो किनारे के पेड़ हैं जो समूत उखड़कर गिर रहे हैं। बड़े बड़े योधाओं के शरीर मानों भारी भारी जलजन्तु हैं। शूरों के मन में उत्साह है और कायर डर रहे हैं। फेंक (सियार) पेट फाड़-फाड़ कर खा रहे हैं, कौआ और कंक (गिद्ध) के बालक शोर मचा रहे हैं।



*पाठान्तर―सहित, भरत।
†पाठान्तर―बकुल।