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लङ्काकाण्ड

सवैया

[ ११६ ]

तीखे तुरंग कुरंग सुरंगनि साजि चढ़े छँटि छैल छबीले।
भारी गुमान जिन्हैं मन में कबहूँ न भये रन में तनु ढीले॥
तुलसी गज से लखि केहरि लौं*, झपटे पटके सब सूर सलीले।
भूमि परे भट घूमि कराहत, हाँकि हने हनुमान हठीले॥

अर्थ―छवीले छैल जिनको बड़ा गर्व था कि रण में कभी भी उनकी देह ढीली नहीं पड़ी है, छटक कर (तेज़ी से) मृग के समान तेज़ सुन्दर रंगवाले घोड़ों पर चढ़े। तुलसीदास कहते हैं कि जैसे हाथी को देखकर शेर झपटता है इसी तरह पानीवाले शूर पटके। भूमि पर पड़े-पड़े योधा कराह रहे थे जिनको हठीले हनुमान ने भगाकर मारा था।

शब्दार्थ―तुरंग = घोड़े। कुरंग = मृग। कोहरि = शेर। ललीले = पानीवाले अथवा लीला (खेल) ही में।

[ ११७ ]

सूर सजाइल साजि सुबाजि, सुसेल धरे बगमेल चले हैं।
भारी भुजा भरी, भारी सरीर, बली बिजयो सब भाँति भले हैं॥
तुलसी जिन्हैं धाये धुकै धरनीधर, धौर† धकानि सों मेरु हले हैं।
ते रन-तीर्थनि लक्खन लाखन दानि ज्यों दारिद दाबि दले हैं॥

अर्थ―सजोइल अर्थात होशियार होकर अथवा हथियार सजकर पल भर में अच्छे-अच्छे घोड़ों को सजाकर अच्छे-अच्छे सेल (वर्छी) धारण करके शूर बगमेल चले। वे भारी भुजावाले और भारी शरीरवाले बलवान्, विजयी और सब भाँति अच्छे थे। तुलसीदास कहते हैं कि जिनके चलने से पृथ्वी हिलती थी और सफ़ेद (बर्फ़वाले, ऊँचे) पहाड़ जिनके चलने के धक्के से हिलते थे उनमें से लाखों तीखे वीरों को लक्ष्मण ने दबाकर मार डाला जैसे दरिद्र को दानी नाश कर देता है।


  • पाठान्तर―तुलसी लखि के हरि केहरि अथवा तुलसी लखि के करि केहरि।

†पाठान्तर―घोर।