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कला और प्राधुनिक प्रवृतियाँ

मौलिकता की इतिश्री कर देंगे। हमारा ध्यान इस ओर जाना चाहिए कि संयोजन का अर्थ यह नहीं है कि दूसरों के बनाये हुए नियमों को सुविचार किये बिना ही प्रयोग में लाया जाय। नियामक चाहे जितना महान् और बुद्धिमान् क्यों न हो कुछ निष्कर्षों का उचित उपयोग अवश्य है, जिनकी महत्ता व्यक्तिगत अनुभव से ही हृदयंगम की जा सकती है। नियम का अन्धाधुन्ध अनुसरण प्रायः हानिकर सिद्ध हुआ है। नियम की सत्ता विश्वसनीय और अविश्वसनीय दोनों ही हो सकती है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वानुभव से नियमों को परख कर अपना एक व्यवस्थित नियम बनाना चाहिए क्योंकि दूसरों के निष्कर्षों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मनुष्य स्वतः किसी गुरुतर कार्य के लिए तब तक नहीं उद्यत होता, जब तक कि उस कार्य की श्रेष्ठता में उसका व्यक्तिगत विश्वास न हो और यह विश्वास उसके व्यक्तिगत अनुभव तथा अनुसंधान से ही उत्पन्न हो सकता है। किन्तु हमारा अनुसन्धान अवश्य ही विवेकपूर्ण होना चाहिए, अन्यथा बहुत संभव है कि हम जीवन पर्यन्त चित्रांकन करके भी चित्र के लिए अनेक आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण गुणों को न जान पायें और छोड़ दें।

अनुपात

प्रत्येक चित्र में प्रायः किसी एक पक्ष को सबसे अधिक महत्त्व दिया जाता है। इस पक्ष को हम ‘मुख्य-विषय’ कहते हैं। मुख्य-विषय के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह कोई एक ही वस्तु या प्राकृति हो वरन् वह कई वस्तुओं का एक समूह भी हो सकता है। चित्र के जो भाग मुख्य विषय में सम्मिलित नहीं रहते, उन्हें हम ‘गौण विषय’ कहते हैं। चित्रकला प्रारम्भ करनेवाले विद्यार्थी कभी-कभी अपने चित्रों में मुख्य विषय की अपेक्षा गौण विषय को अधिक प्रधानता देते हैं। इसी तरह कभी-कभी वे अपने चित्र में रिक्त स्थान अधिक छोड़कर प्रधान विषय को बहुत छोटा रूप दे देते हैं, जिससे उसकी प्रधानता का भाव नष्ट हो जाता है।

संयोजन के सिद्धान्तों में ध्यान देने योग्य बात यह है कि चित्र में प्रधान विषय को ही महत्त्व मिलना चाहिए और गौण वस्तुएँ भी इसीलिए चित्रित की जायँ कि वे प्रधान विषय को और भी उभार दें। यह सदा ध्यान रखना चाहिए कि मुख्य विषय गौण वस्तुओं से दबने न पाये।

ऐसा संयोजन प्राप्त करने के लिए चित्र में दी हुई वस्तुओं के अनुपात में मुख्य वस्तु को सबसे बड़ा बनाना चाहिए। मान लीजिए, आपको कृष्ण की मुरली का चित्र बनाना है। ऐसा करने के लिए कोई एक बड़ा दृश्य बना सकता है, जिसमें एक उपवन में कृष्ण