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चित्रकला

फल की भावना तथा रूप कल्पना में प्राता है, परन्तु नारंगी शब्द नारंगी नहीं है, नारंगी तो एक फल है। उसको नारंगी कहकर केवल सम्बोधित किया जाता है। हम किसी को बिना कुछ दिये कहें कि यह लो नारंगी, तो यह कितना निरर्थक होगा? उसी प्रकार चित्र में नारंगी का केवल एक प्रतीक बनाया जा सकता है, जो स्वतः नारंगी नहीं हो सकता। चित्र में बनी नारंगी में वे सभी गुण नहीं हो सकते, जो नारंगी के फल में होते हैं। चित्र में नारंगी फल की भावना केवल दर्शायी जाती है और उसे देखने से हमारे भीतर नारंगी फल के और गुणों का भी काल्पनिक रूप से बोध हो जाता है ।इस प्रकार यह बहुत आवश्यक है कि हम चित्रकला के चिह्नों, प्रतीकों तथा भाषा को अच्छी तरह समझ लें ताकि दूसरों के व्यक्त किये भावों को समझ सकें और उनका आनन्द ले सकें।

चित्रकला की भाषा के मुख्य अंग रेखा, आकार, रूप तथा रंग हैं। वैसे यदि हम चित्रकला की भाषा को रूप की भाषा कहें तो अनुचित न होगा; क्योंकि रेखा, रंग तथा आकार सभी रूप के अन्तर्गत हैं। और फिर रूप के और भी टुकड़े किये जा सकते हैं, जैसे प्रकाश, अन्धेरा, धुँधलापन, रंगों की गहराई, छाया इत्यादि। परन्तु चित्रकला को भाषा की सुविधा के लिए हम तीन भागों में विभाजित करते हैं और वे हैं――रेखा, रूप तथा रंग।

रेखा

रेखाओं का भारतीय चित्रकला में एक मुख्य स्थान है। प्राचीन चित्रकला में रेखाओं का अध्ययन बहुत ही गहरा मिलता है। रेखाओं से चित्रकला में विभिन्न विधियों से कार्य लिया जाता था और उनका स्थान चित्रकला में रंग और रूप से पहले आता था, क्योंकि रेखामों से ही रूप का निर्माण होता है। इतिहास से पूर्व के जो भी चित्र मिलते हैं उनमें भी रेखाओं की प्रधानता रही है। ब्राह्मण तथा बौद्धकालीन चित्रों में भी रेखा प्रधान थी। अजन्ता की सारी चित्रकला रेखाओं के विज्ञान पर ही निर्मित है। रेखानों के उतार-चढ़ाव में एक प्राश्चर्यजनक जादू-सा दिखलाई पड़ता है। उनकी रेखाओं में जीवन झलकता है। केवल प्राचीन भारत में ही नहीं, बल्कि उस समय की और दूसरे देशों की कला में भी रेखाओं का महत्त्व बहुत था। चीन, जापान, जावा, लंका, फारस इत्यादि अनेक देशों में वहाँ की चित्रकला का प्राण उनकी रेखाएँ रही हैं। रेखा-शक्ति पर जितनी खोज इन देशों में हुई है उतनी कदाचित् अन्य देशों में नहीं हुई। रेखाओं का जादू तो हमें प्राचीन चित्रों में देखने से मिल जाता है, पर कला का जो विद्यार्थी रेखाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करना चाहता है उसे ऐसे प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे वह उनका शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त कर सके। आधुनिक भारतीय चित्रकारों को यह ज्ञान ढूढ़ना चाहिए और उनका अपनी चित्रकला में प्रयोग करना चाहिए।