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कला और सौन्दर्य

है। बहुत-सी वस्तुएँ विचित्र तथा विलक्षण होती हैं, परन्तु सब को देखकर मनुष्य आनन्दित नहीं होता। जिन वस्तुओं से हमें भय नहीं होता, घृणा नहीं होती, वही हमें आकर्षित करती हैं। बालक कुत्ते के प्रति आकर्षित होता है, पर जब उसे काटते देखता है तो उसका आकर्षण खत्म होने लगता है। इस प्रकार कष्टदायक वस्तुओं के प्रति आकर्षण धीरे-धीरे खत्म होता जाता है, यद्यपि उस वस्तु का रूप, रंग, आकार तथा विलक्षणता हमें कष्ट नहीं देती केवल उसका स्वभाव कष्ट देता है। सर्प अनेकों प्रकार के विलक्षण रूप, रंग के होते हैं। उनका रूप नहीं बल्कि स्वभाव कष्टदायक है। हम मदारी के सर्प देखते हैं, क्योंकि वहाँ हमें भय नहीं रहता और हम उनके रूप का आनन्द ले सकते हैं। इसी प्रकार संसार की प्रत्येक वस्तु का रूप हमें आकर्षित करता है, उसके सौन्दर्य का आनन्द हम लेते हैं।

वस्तुओं का रूप, रंग और विलक्षणता हमें भाती है, उसी में हम सौन्दर्य की अनुभूति प्राप्त करते हैं और आरम्भ से ही हमारे मस्तिष्क के अचेतन पट पर वस्तुओं के चित्र अंकित होते जाते हैं। जो रूप जितना विलक्षण होता है वह मानस-पट पर उतनी ही गहराई से अंकित होता जाता है। हाँ, उसमें से कुछ रूप हमें अधिक रुचिकर लगते हैं जिनके साहचर्य से हमें भय, घृणा न होकर प्रेम की अनुभूति हुई रहती है या जिनसे हमें लाभ हुआ रहता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु के प्रति हमारी रुचि बनती है। आरम्भ में बालक दूध पीता है, वह उसे रुचिकर होता है। उसका सफेद रंग भी उसे रुचिकर लगता है, क्योंकि उसी से वह उसे पहचानता है। काले रंग का कुत्ता उसे उतना रुचिकर नहीं लगता जितना सफेद रंग का। सफेद कपड़े का हमारे समाज में अधिक उपयोग होता है—बालक आरम्भ से ही यह देखता है और समाज की इस रुचि को उचित समझकर अपनाता है। इस प्रकार बालक अपने समाज में प्रचलित बहुत सी रुचियों को अपनाता जाता है। धीरे-धीरे अपने अनुभव तथा समाज की रुचि के अनुसार वह कुछ रूप, रंगों तथा आकारों को सुन्दर समझने लगता है और आगे चलकर इस प्रकार संसार में देखी वस्तुओं में से कुछ रूपों के प्रति उसकी पक्की धारणा बन जाती है और उन्हें देखकर वह सौन्दर्य प्राप्त करता है।

आगे चलकर जब व्यक्ति विचारशील तथा अध्ययनशील हो जाता है तब वह अपनी धारणाओं पर पुनः दृष्टिपात करता है, यह जानने के लिए कि जो धारणाएँ उसने बनायी हैं वे विचार की कसौटी पर सही उतरती हैं या नहीं। इस समय वह विवेक के साथ नयी धारणाएँ बनाता है, और विवेकहीन रुचियों को त्यागना प्रारम्भ करता है। समाज से तथा अनुभव से प्राप्त रुचि को वह बिलकुल नहीं त्याग देता, बल्कि उनमें से परिमार्जित