राम, कृष्ण, गणेश, शिव, इत्यादि मनुष्य की आकृतियों या ऐसे ही सांसारिक रूपों के सामंजस्य की आकृतियों में। हाँ, निराकार ब्रह्म में लीन होना दूसरी बात है जिसका चित्रकला से शायद कोई ताल्लुक नहीं, क्योंकि चित्र में रूप या आकृति आवश्यक है चाहे वह अति सूक्ष्म ही क्यों न हो।
वस्तु भी सत्य है। मनुष्य है और सारा संसार अनेक प्रकार की वस्तुओं से भरा हुआ है। दोनों ही सृष्टि के अंग हैं और दोनों सत्य है। फिर एक को सुन्दर और दूसरे को असुन्दर कैसे कहा जा सकता है? मनुष्य के रूप में सुन्दरता है और संसार के रूप में भी। परन्तु मनुष्य यदि संसार का सौन्दर्य देखना चाहता है, तो उसे अपने मनोबल का भी प्रयोग करना होगा। आँख बन्द कर लेने से, मस्तिष्क की क्रिया को रोक देने से न तो वस्तु दिखाई पड़ेगी न सौन्दर्य, यद्यपि फिर भी वस्तु में सौन्दर्य रहेगा और चिरन्तन के लिए। हम मिट जायँ तो भले हमारे लिए संसार न हो, पर संसार तो रहा है और रहेगा। कब तक रहेगा, यह नहीं कहा जा सकता, न यह ही कि कब से है। पर है और रहेगा। वस्तु में सुन्दरता है, हाँ आँख मूँद लेने पर हमें नहीं दिखाई पड़ती। जो सत्य मनुष्य के भीतर है वही संसार में भी है। दोनों को सम्मुख करने की आवश्यकता है।
सौन्दर्य और विलक्षणता
सौन्दर्य पर विचार करते समय हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सौन्दर्य वस्तु तथा मन दोनों में निहित है। इस बात को भली-भाँति समझने के लिए आइए हम इस पर विचार करें कि वस्तु में सौन्दर्य किस रूप में होता है और मन में सौन्दर्य की भावना कहाँ से प्राप्त होती है।
पहले मन को लीजिए। यहाँ एक प्रश्न विचार करने योग्न है कि मनुष्य के अन्दर सौन्दर्य की भावना कब से और कैसे उत्पन्न होती है। हम सभी अपने-अपने बाल्यकाल की कुछ न कुछ बात याद रखते हैं। आइए, उन्हीं पर विचार करें। सोचिए कि क्या तुरन्त उत्पन्न हुए शिशु को सौन्दर्य की अनुभूति होती है? यदि ऐसा होता तो बालक उत्पन्न होते ही चीख-चीख कर रोने के बजाय हँसता या मुस्कराता हुआ आता। आप कह सकते हैं, उस समय वह गर्भ का कष्ट अनुभव करता है इसीलिए रोता है, यद्यपि सौन्दर्य की भावना उसम होती है। ठीक भी हो सकता है। सौन्दर्य की प्राप्ति पर आनन्द होता है और आनन्द लेते समय व्यक्ति मौन भी रह सकता है, जैसा एक बालक पालने पर पड़ा मौन आनन्द लेता रहता है, यद्यपि वह इस प्रकार केवल आनन्द पाता है या सौन्दर्य की अनुभूति भी करता है,