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जीवन और कला

उसकी सुन्दरता अनन्त है। इस अनन्त सुन्दरता का जो रसपान नहीं कर सकता वह चित्रकार हो ही नहीं सकता। एक बार प्रकृति की सुन्दरता का रसपान कर लेने पर उसके सामने सौन्दर्य का एक कोष खुल जाता है। उसमें से चित्रकार जितनी चाहे उतनी सुन्दरता अपनी रचना में भर सकता है। प्रकृति की सुन्दरता का निरन्तर रसपान करते रहने और उस सुन्दरता के आधार का पता लग जाने पर चित्रकार अपने चित्रों को भी सुन्दरता से भर सकता है।

आज का जीवन इतना व्यस्त है कि हमें प्रकृति की सुन्दरता का रसपान करने का समय ही नहीं मिलता। परन्तु प्रकृति की सुन्दरता का निरन्तर निरीक्षण करते रहने पर उसकी सुन्दरता का मंत्र चित्रकार को मिल जाता है। फिर वह उस प्यासे की भाँति जिसकी प्यास कभी बुझती ही नहीं, दिन-रात प्रकृति सुन्दरी के महासागर में गोते लगाता रहता है। और उसी से प्रभावित होकर अपनी रचना भी करता जाता है और तभी उसकी रचना भी महान् हो पाती है। वह जानता है फूलों में सुन्दरता कहाँ से आयी, कल-कल करती हुई नदियों को सुन्दरता कहाँ से मिली, आकाश में, पृथ्वी पर, जल में, वृक्षों में, पक्षियों में, जीव-जन्तुओं में, कीड़े-मकोड़ों में, उमड़ते-घमड़ते बादलों में, सूर्य की किरणों में, चाँद की चाँदनी में और मनुष्य में सुन्दरता कहाँ छिपी है। यह बृहत् ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही चित्रकार महान् हो पाता है और महान् रचना कर पाता है। चित्रकला का कार्य बिना इस ज्ञान के आगे बढ़ नहीं सकता। चित्रकार को प्रकृति का प्रेमी बनना पड़ता है और ऐसा प्रेमी जो पल भर के लिए भी अपनी प्रेयसी को भुला नहीं सकता।

जब चित्रकार और प्रकृति का सम्बन्ध प्रेमी और प्रेयसी का है तो प्रेमी अपनी प्रेयसी को क्षण भर के लिए भी आँखों से ओझल नहीं कर सकता और अकस्मात् यदि उसकी प्रेयसी को दुःख होता है, चोट पहुंचती है, तो वह उसे कदापि नहीं सहन कर सकता। उसकी प्रेयसी को चोट उसके ही भाई-बन्धु लगा सकते हैं। जापान में एटम बम गिरा। हिरोशिमा की सारी प्रकृति नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। पिछले महायुद्ध में करोड़ों मनुष्य काल-कवलित हुए, घायल हए और कुरूप हो गये। बीमारी, महामारी, भूख और तड़प ने लोगों को जर्जर कर दिया। सुकुमार बच्चों, कोमल युवतियों और अनेकों प्राणियों की सुन्दरता छिन गयी। यह सब किसने किया? मनुष्य ने अपनी सुन्दरता को अपने आप बिगाड़ लिया। कोई कलाकार क्या कभी ऐसा कर सकता है? या सोच सकता है? वह इसे कभी सहन नहीं कर सकता और यदि सब में यही कलाकार की भावना हो तो ऐसे कुरूप दृश्य देखने का कदाचित् ही किसी को अवसर मिले।

आज हमारा समाज कुरूप और विकृत हो चुका है। ऊँच-नीच का भाव, आपस का