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जीवन और कला

संसार की सम्पूर्ण सभ्यताओं का आधार मनुष्य की सुख पाने की अभिलाषा है। सुख की खोज में ही मनुष्य इतना आगे बढ़ पाया है। इस खोज के लिए मनुष्य तन-मन-धन तथा अपनी सम्पूर्ण चेतनाओं से निरन्तर रत रहता है। मनुष्य का कोई भी ऐसा काम नहीं जिसमें उसके सुख की आकांक्षा न छिपी हो। मनुष्य अभिलाषाओं की एक गठरी है और इन सभी अभिलाषाओं की वह पूर्ति करना चाहता है। एक ओर जैसे-जैसे उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण होती जातीं वैसे-वैसे उसे अधिक सुख मिलता जाता है, और दूसरी ओर उसकी गठरी की अभिलाषाएँ बढ़ती जाती हैं। यही है मनुष्य का नित्य-प्रति का कार्य। यही है उसका जीवन। मनुष्य की अभिलाषाओं का न तो कभी अन्त ही है और न उसकी सुख की लालसा ही समाप्त होती है। यह एक प्रकार की मृगतृष्णा हुई।

इसी प्रकार की मृगतृष्णा का यह संसार है जिसमें प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी प्यास बुझाने के लिए व्याकुल है। न प्यास ही समाप्त होती है, न पानी ही। इस मृगतृष्णा से लोहा लेने के दो ही मार्ग हो सकते हैं। एक तो यह कि इस प्यास को भुलाने का प्रयत्न किया जाय और दूसरा यह कि इस प्यास को दृढ़ता के साथ शान्त करने के प्रयत्न किये जायँ। हम इसको भुलानेवालों में संसार से मुख मोड़े संन्यासियों को कह सकते हैं जो संसार की ओर से आँख बन्द कर लेते हैं। संसार के अन्य प्राणी इस प्यास को बुझानेवाले हैं जिसमें हम और आप सम्मिलित हैं। इसे हम जीवित रहने की कला कह सकते हैं।

कला, काम करने की वह शैली है जिसमें हमें सुख या आनन्द मिलता है। वैसे तो कला का नाम लेने पर हमें ललित-कलाओं, संगीत-कला, चित्र-कला, काव्य-कला, नृत्य-कला, इत्यादि का बोध होता है, परन्तु ये सभी कलाएँ जीने की कला के अन्तर्गत है या हम यों कह सकते हैं कि जीने की कला इन सभी की माता है। जीने की कला में अच्छी तरह सफल होना हमारे जीवन का लक्ष्य है, और सब कलाएँ इसमें योग देती हैं, जिस प्रकार एक बड़ी नदी में छोटी-छोटी अनेकों नदियाँ आकर मिलती जाती हैं और अपना योग देती