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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

बालक की सारी रुचि का परिवर्तन हो जाता है, वह भी भेड़ियों की भाँति व्यवहार करता है, उसी तरह चलता-फिरता है, बोलने का प्रयत्न करता है, खाता है, पीता है। वह भेड़ियों की भाँति जानवरों का मांस तक कच्चा खाने लगता है। अर्थात् जैसा सम्पर्क मनुष्य को मिलता है वैसी ही उसकी रुचि बनती जाती है। इसी प्रकार रुचि की प्रतिक्रिया कला के बारे में भी प्रत्येक व्यक्ति की बनती है। शहर के एक रईस अपने को कला-रसिक समझते है, योंकि उनके स्वर्गीय पिताजी को कला से बहुत प्रेम था। उनके पिताजी जब जीवित थे तो सदैव 'राजपूत कला' की खोज में रहते थे, बहुत से चित्र खरीदा करते थे और इकट्ठा करते थे, क्योंकि श्रद्धेय पिताजी को यह पसन्द था, शहर के यह रईस भी राजपूत चित्रकला को बहुत पसन्द करते हैं। उनको कोई और दूसरी कला अच्छी ही नहीं लगती। उनको राजपूत कला के लिए प्रेम उत्पन्न हो गया है। समझते कुछ नहीं।

देश के एक सर्वप्रिय नेता को गुलाब का फूल बहुत पसन्द है, इसलिए हम गुलाब को भारत का सर्वश्रेष्ठ पुष्प समझते हैं। उसका रूप, रंग सभी हमें बड़ा रुचिकर लगता है। अर्थात् यह आवश्यक नहीं है कि वस्तुओं के प्रति हमारी प्रतिक्रिया सीधे इन्द्रियजन्य ज्ञान पर आधारित हो, बल्कि बहुधा हमारी प्रतिक्रिया उद्वेग-जनक और सांसर्गिक होती है। हम वस्तुओं का आनन्द सीधे नहीं प्राप्त करते या कर सकते, बल्कि उन वस्तुओं के साथ हम किसी दूसरी वस्तु का संसर्ग स्थापित करते हैं और क्योंकि यह दूसरी वस्तु हमें प्रिय थी इसीलिए यह वस्तु भी हमें रुचिकर प्रतीत होने लगती है। कला-रसिक उपर्युक्त शहर के रईस को अपने पिता पर श्रद्धा है, इसलिए उनको उन सभी वस्तुओं में रुचि दिखाई पड़ती है, जो उनके पिता को पसन्द थीं। अंग्रेजी में कहावत है--'प्रेमी अपनी प्रेयसी को तो प्यार करता ही है, पर उसके कुत्ते को भी उतना ही प्यार करता है। हमें विल्ली इसलिए पसन्द है क्योंकि हमारी प्रेयसी भी सदा गोद में बिल्ली लिये रहती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वस्तुओं का आनन्द हम कम लेते हैं, बल्कि उस वस्तु के द्वारा, क्योंकि हमें किसी दूसरी वस्तु की याद आती है, इसलिए उस वस्तु को भी हम पसन्द करते हैं। अर्थात् हम वस्तुओं का सांसर्गिक मूल्यांकन ही करते हैं। इसी प्रकार कला के मूल्यांकन में भी सांसर्गिक मूल्यांकन को ही हम अधिक महत्त्व देते हैं। समाज का एक व्यक्ति, जो राम-भक्त है, यदि अकस्मात् किसी चित्र-प्रदर्शनी में पहुँच जाय, जहाँ चित्रकार ने एक भी ऐसा चित्र नहीं बनाया है जो रामचरित्र से सम्बन्धित हो, तो इन महाशय को वहाँ का एक भी चित्र पसन्द न आयेगा, क्योंकि येतो चित्र में राम का होना आवश्यक समझते हैं। अर्थात् यह चित्रकला नहीं पसन्द करते हैं राम को पसन्द करते हैं। चित्र से प्रभावित नहीं होते, राम से प्रभावित होते हैं। इसी प्रकार व्यक्तिगत रुचि बहुतों की हुआ करती है, परन्तु ऐसी रुचि से कला का कोई सम्बन्ध नहीं। कलाकृति में स्वयं गुण होता है। इसीगण में रुचि लेना आवश्यक है।