करना, अर्थात् हममें और उसमें अभिन्नता का बोध करना । जब हम और वह एक हैं तो हमारा पथ भी एक ही है । यही पथ कला का भी होगा अर्थात् कला भी एक और दो के भेद को मिटाने का कार्य करेगी । सुविधा के लिए एक के अर्थ में हम व्यक्ति को समझेंगे और दो के अर्थ में समाज को ।
कला का कार्य व्यक्ति और समाज में एकता लाना है । व्यक्ति और समाज को परस्पर समीप लाना है । इसी कार्य के लिए संसार में भाषाओं की उत्पत्ति हुई, जिनमें से कला भी एक है ।
व्यक्ति संसार में स्वतः के किये हुए अनुभवों से लाभान्वित होता है । उन अनुभवों से वह दूसरों को भी लाभान्वित कराना चाहता है, इसलिए वह कला की भाषा के माध्यम से दूसरों तक अपने अनुभवों को पहुँचाता है । उसके अनुभव से तभी लोग लाभ उठा सकते हैं, जब वह एक ऐसी भाषा द्वारा उसे व्यक्त करे जो सभी सरलता से समझते हों । यदि ऐसी कोई भाषा नहीं है तो उसका निर्माण करना आवश्यक है । आज जितने देश है जितने प्रदेश हैं उतनी ही भाषाएँ हैं । कोई जर्मन भाषा बोलता है तो कोई अंग्रेजी, कोई फ्रेंच तो कोई लैटिन । ऐसी विषम परिस्थिति में उभय पक्षों में एकता या सामंजस्य कैसे स्थापित किया जा सकता है ?
चित्रकला भी एक भाषा है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने को व्यक्त करता है आज इस भाषा का कोई निश्चित रूप नहीं है । इस भाषा के नित्य नये रूप सामने आते हैं । यही कारण है कि सारा समाज इससे लाभ नहीं उठा पाता । आधुनिक चित्रकला से इने-गिने व्यक्ति ही लाभ उठा पाते हैं या आनन्द ले पाते हैं । जब-तक चित्रकला की भाषा का एक निश्चित रूप न होगा और जब तक समाज में उसका प्रचार भली-भांति न होगा, तब तक चित्रकला का लक्ष्य सिद्ध न होगा । प्रत्येक आधुनिक कलाकार के सामने यह समस्या आज भी है और पहले भी थी । इतिहास से ज्ञात होता है कि प्राचीन कला में कला की भाषा का ऐसा रूप था जिससे पूरा समाज लाभ उठा पाता था । उस समय कला का प्रचार भी अधिक था, समाज की परिस्थिति भी अच्छी थी । इस प्रकार देखने से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में कला की भाषा सुगम थी । आज यदि हम उसी को आधार मानकर अपनी भाषा को प्रौढ़ बनाने का प्रयत्न करें तो हम अधिक सफल हो सकेंगे । इसीलिए बहुतों का परम्परा में विश्वास होता है ।
समाज की कार्यप्रणाली को ही परम्परा कहते हैं । प्राज से पहले जो कार्य-प्रणाली समाज में थी उसे ही आज हम परम्परा के नाम से समझते या संबोधित करते हैं । परम्परा