इसलिए हम कह सकते हैं कि रचना का कार्य बौद्धिक है । कला सर्वप्रथम मानसिक है या कला एक मानसिक गुण है ।
वैसे तो मनुष्य में जन्मजात प्रतिभाएँ होती हैं जिनके कारण मनुष्यों के कार्यों में अन्तर पड़ जाता है, परन्तु यह अन्तर साधना के प्रयोग से भी पड़ सकता है जिसका इस संसार में अधिक महत्त्व है । साधना के द्वारा मनुष्य अपने कार्य की क्षमता बढ़ा सकता है । साधना और साधारण आदत में बहुत अन्तर है । जैसे एक मनुष्य शराब पीने की पक्की आदत बना लेता है, परन्तु शराब पीने में साधना की आवश्यकता नहीं है । शराब का सम्बन्ध या आदत का सम्बन्ध केवल शारीरिक भी हो सकता है, परन्तु साधना का सम्बन्ध मस्तिष्क से है । साधना का कार्य बिना मस्तिष्क के हो ही नहीं सकता, परन्तु आदत का हो सकता है । साधना में मनुष्य को आत्मशक्ति का सहारा लेना पड़ता है तब साधना हो पाती है । साधना के द्वारा केवल कार्य-शक्ति नहीं बढ़ती बल्कि मानसिक शक्ति का विकास भी होता है । किसी भी कार्य को भली-भाँति करने के लिए साधना की आवश्यकता है, कला स्वयं साधना है जो मानसिक विकास का आधार है । यह साधना मनुष्य का वह गुण है जिस के द्वारा वह जीवन में आनन्द की प्राप्ति कर सकता है, अपने जीवन को सुखी बना सकता है ।
यह गुण प्रत्येक कर्मशील प्राणी के लिए आवश्यक है जिसके आधार पर वह अपने कार्य में सफलता तथा सुन्दरता प्राप्त कर सकता है, क्योंकि कार्य करने का तरीका, कार्य करने-वाले की शक्ति का द्योतक है और मनुष्य की रचना मनुष्य स्वयं है । मनुष्य जो कुछ भी रचना करता है उसमें उसके व्यक्तित्व की प्रतिच्छाया उतर आती है जिसे देखकर उसके रचयिता का बोध होता है । सृष्टि का रचयिता ईश्वर समझा जाता है । ईश्वर का साक्षात्कार करना इतना सरल नहीं, परन्तु ईश्वर की रचना-सृष्टि का निरीक्षण कर उस ईश्वर की कल्पना की जा सकती है । सृष्टि ईश्वर का गुण है । इसी प्रकार कला का स्वरूप भी चित्रकार का स्वरूप है । इसलिए कलाकार अपनी रचना में सफलता पाने के लिए साधना करता है और उस शक्ति के आधार पर रचना करता है । साधना मस्तिष्क का गुण है, इस प्रकार साधना से मनुष्य के मस्तिष्क का विकास होता है, उसकी मानसिक शक्तियाँ बढ़ती है । हम कह सकते हैं-- कला के द्वारा मानसिक शक्ति का विकास होता है।
सौन्दर्य की व्याख्या करते हुए विद्वानों ने कहा है-“परमात्मा सौन्दर्य है", वह सौन्दर्य का स्रोत है । जिस प्रकार सूर्य प्रकाशमय है और दूसरों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार संसार में कलाकार का स्थान भी समझा जाता है । जब तक कलाकार में सौन्दर्य नहीं होगा, वह दूसरों को सौन्दर्य कैसे प्रदान कर सकता है ? जब तक वह स्वयं गुणी नहीं है, उसकी