हैं । पक्षी एक-एक तिनका चुनकर सुन्दर घोंसले बनाते हैं । पेड़-पौधे जड़ों से रस खींचकर फूल-पत्तियों तथा फलों से अपने को अलंकृत करते हैं । इस प्रकार यह संयोजन या प्रबन्ध कितना महत्त्व रखता है, यह हम प्रकृति में देख सकते हैं । हमें स्वीकार करना ही पड़ता है कि हमारे जीवन में पग-पग पर संयोजन या प्रबन्ध की आवश्यकता है । इसके बिना हम कोई कार्य कर ही नहीं सकते । सारा संसार एक प्रबंध के ऊपर आधारित है । और यह प्रबन्ध जिन सिद्धान्ता पर आधारित होगा उन्हें ही हम सृष्टि का रहस्य कह सकते हैं । ऐसा सिद्धान्त होना भी निविवाद है । इन सिद्धान्तों को आसानी से समझना मनुष्य की शक्ति से बाहर है, परन्तु इन सिद्धान्तों को समझ लेने पर सष्टि का सारा रहस्य हमारे सम्मुख प्रकट हो जाता है ।
इसी प्रकार मनुष्य संयोजन के सिद्धान्त खोजकर ही निश्चित रूप में कार्य करता है । तभी उसे सफलता प्राप्त होती है । सभी कलात्रों के संयोजन के सिद्धान्त हैं, उन्हीं के अनुसार कला की रचना होती है । इन सिद्धान्तों को हम 'सत्य' कह सकते हैं । सत्य अनेक नहीं हो सकते, इसीलिए सिद्धान्त भी अनेक नहीं है । सभी कलाओ में एक ही सिद्धान्त हैं, उनके रूप ऊपर से भले ही भिन्न-भिन्न दिखाई पड़ते हों। सिद्धान्त क्या है ? यह निश्चित करना सरल नहीं, किन्तु यदि हम रचना करने का अभ्यास करते जायँ तो अवश्य ही इन सिद्धान्तों को किसी न किसी रूप में खोज निकालेंगे ।
चित्रकला में भी संयोजन करना पड़ता है और इसको भी हम संयोजन के सिद्धान्तों को खोजने का माध्यम बना सकते हैं । यदि हम संयोजन-सिद्धान्त को जान लें तो हमारा हर कार्य सुचारु रूप से चलेगा, हमारा प्रत्येक व्यवहार सुन्दर और सुदृढ़ होगा । उसी सिद्धान्त पर हम अपने सारे समाज का संयोजन और संघटन भली-भाँति कर सकेंगे ।
संयोजन या प्रबन्ध मनुष्य के प्रत्येक कार्य में होता है । परन्तु संयोजन दो प्रकार के होते हैं--एक चेतन मन-स्थिति में, दूसरा अचेतन मन-स्थिति में । या हम इसे अजित या मूलप्रवृत्त्यात्मक कह सकते हैं । जानवरों, पक्षियों तथा पेड़-पौधों का संयोजन मूलप्रवृत्त्यात्मक होता है । बुद्धि से वे संयोजन नहीं करते, परन्तु मनुष्य बुद्धि से भी संयोजन कर सकता है अर्थात् वह अपने सिद्धान्त के आधार पर भी संयोजन कर सकता है । पशु-पक्षी अपने रहने के स्थान सदैव एक प्रकार से बनाते हैं, परन्तु मनुष्य अपनी बुद्धि से नाना प्रकार के मकान बनाता है । इसी प्रकार वह और सभी कार्यों को बुद्धि के सहारे करता है, चेतन मन से कार्य करता है या संयोजन करता है । अचेतन मन से जो संयोजन होता है वह उसी प्रकार रूढ़िवादी है जैसा जानवरों का आदिकाल से आज तक एक प्रकार के ही रहने का स्थान बनाना । परन्तु मनुष्य बुद्धि से अपने प्रत्येक कार्य में परिवर्तन कर सकता