भ्रष्ट हो गया, बुद्धिहीन तथा सौन्दर्य विहीन हो गया । आज का व्यक्ति रोटी के विकट प्रश्न को सुलझाने में जी-जान से लगा है, पर प्रश्न दिन पर दिन उलझता ही जाता है । समाज के पास समय नहीं कि वह कला की ओर ध्यान दे । उसके जीवन में कला को कोई स्थान प्राप्त नहीं । कलाकार और उसकी कला समाज पर आश्रित है । कलाकार बेसहारा हो गया । कलाकार जानता है, आज समाज में उसकी कला की कोई पूछ नहीं है । वह यह भी समझता है कि उसकी कला की क्या शक्ति है । समय के अनुसार कला भी नाना रूप धरकर कुबुद्धि का संहार कर सकती है, यह उसे ईश्वरीय वरदान है । आधुनिक कला और प्रधानतया सूक्ष्म-कला समाज के सम्मुख एक ऐसा ही रूप है और कला का ऐसा रूप तब तक रहेगा जब तक समाज होश में नहीं आता ।
सूक्ष्म चित्रकला में प्राचीन चित्रकला की भाँति विषय नहीं होता और यदि होता है तो प्राचीन कला से भिन्न । प्राचीन कला का विषय किसी कथा, पुराण या सामाजिक दृश्य या पात्रों के चरित्र से सम्बन्धित होता है, जैसे अजन्ता के चित्र बौद्ध धर्म-कथाओं तथा बुद्ध-चरित्र से सम्बन्धित थे, मुगल-चित्रण दरबारी जीवन से, राजपूत चित्रकला देवी-देवताओं तथा गोपी-कृष्ण के जीवन और समाज से सम्बन्धित थी । सूक्ष्म-कला में वैसा कोई सम्बन्ध नहीं होता ।
सूक्ष्म चित्रकला का रूप वैसा ही शक्तिशाली तथा विराट है जैसा काल्पनिक तथा सत्यरूप प्रलय का हो सकता है । प्रलय का रूप मनुष्य को भयानक लगता है, पर वह सत्य है । प्रलय होता है । प्रलय के समय सारे संसार और ब्रह्माण्ड का सिद्धान्त रद्द हो जाता है । जो न होना चाहिए वही होता है । वह कौन-सी शक्ति है जो कि प्रकृति के नियमों में उलट-फेर कर देती है । भारतीय धर्म के अनुसार यह शिव-ताण्डव है । शिव का ताण्डव कला की अद्वितीय कृति है, और कहा जाता है कि यह नृत्य या कला की कृति, संसार का संहार करने के लिए नहीं वरन् पुनः सृष्टि करने के निमित्त होती है । सृष्टि का आधार प्रलय या विध्वंस है । इसी प्रकार जब चित्रकला तथा अन्य कलाओं का समाज अनादर करता है तो उस समय कला अपना वह रूप धारण कर लेती है, जिससे प्रलय तथा विध्वंस और भी पास आ जाता है । कला सभी सिद्धान्तों से विमुख होकर स्वच्छन्द तथा सूक्ष्म हो जाती है, और तभी उसमें प्रलय जैसी शक्ति आ पाती है । ऐसी कला का बहुत महत्त्व है । कलाकार जब मिट्टी की प्रतिमा बनाना चाहता है तो वह भीगी मिट्टी लेकर अपनी कल्पना का साकार रूप उस मिट्टी में देखना चाहता है, परन्तु कभी-कभी लाख प्रयत्न करने पर भी तथा आवश्यक सिद्धान्तों पर चलने पर भी कलाकार उस रूप की प्राप्ति नहीं कर पाता, जिसकी कल्पना उसने की थी । कलाकार हार नहीं मानता, वह थोड़ी देर के लिए खिन्न होकर बनी हुई प्रतिमा को रद्द कर देता है और उसको