कला का सदैव कोई विषय हुआ करता है । भारत की सारी प्राचीन कला का विषय अधिकतर धर्म, भगवान् के अवतार, उनकी लीलाएँ, देवी-देवताओं के चरित्र, राजा-महाराजा तथा उनके राज-दरबार का जीवन या सामाजिक जीवन इत्यादि रहा है । संसार की सभी कलाओं का विषय धर्म रहा है । इन प्राचीन चित्रों को देखकर यह भावना सहज ही उठती है कि कला का कोई विषय होना आवश्यक है । चित्र में कोई कथा, चरित्र या दृश्य होना चाहिए । भारत में इस शताब्दी के प्रारंभ में बंगाल-शैली की चित्रकला में भी विषय पर बहुत ध्यान दिया गया और इसमें भी अधिकतर विषय धार्मिक, ऐतिहासिक तथा सामाजिक थे ।
आजकल धर्म का प्रभाव क्रमशः क्षीण होता जा रहा है, क्योंकि धर्म को माध्यम बनाने में अधिक लाभ के स्थान पर हानि ही होती है । आज का मनुष्य धार्मिक झगड़े में पड़ना उचित नहीं समझता, न उसके पास समय ही है, यदि वह प्रगति करना चाहता है तो । आज धर्म से अधिक महत्त्व मानव-धर्म को दिया जा रहा है । मनुष्य एक साथ मिलजुल कर किस प्रकार आगे बढ़ सकता है, यही मुख्य समस्या है । यही कारण है कि धार्मिक चित्रों के स्थान पर सामाजिक चित्रण का प्रचलन बढ़ता जा रहा है । जनता तथा समाज की दृष्टि से भी सामाजिक चित्र का महत्त्व अधिक है । जनता चित्रों में आज की सामाजिक अवस्था देखना चाहती है, परन्तु आधुनिक चित्रकला इधर कुछ वर्षों से इससे भी विमुख होती दीख पड़ रही है । वह एक नवीन दृष्टिकोण बनाने के प्रयत्न में है, जिसे सूक्ष्मवाद कहा जा सकता है । इस कला का विषय क्या होता है, यह साधारण दृष्टि से नहीं समझा जा सकता और यह कहा जा सकता है कि उसमें कोई विषय होता ही नहीं ।
चित्रकला में यह सूक्ष्मवाद बड़े वेग से फैल रहा है और प्रायः प्रत्येक आधुनिक चित्रकार उसके प्रभाव से बच नहीं सका है, यदि वह आँख खोलकर कार्य कर रहा है तो । धर्म का बोलबाला तो कम हो ही गया, परन्तु उसके बाद आधुनिक समाज में विकृति भी प्रवेश कर गयी, प्रधानतया पूँजीवाद के कारण । समाज का सुख तथा वैभव धीरे-धीरे उठकर पूँजीपतियों के तहखाने में जमा हो गया । समाज खोखला हो गया, कमजोर हो गया, पथ