प्रायः लोगों को यह कहते सुना गया है कि "भाई, मैं चित्रकला का पारखी बिलकुल नहीं हैं और मैं इसको देखकर कोई विशेष आनन्द भी नहीं ले पाता; यह तो चित्रकारों का काम है कि उसे लोगों को समझायें और स्वयं भी आनन्द लें ।" यही नहीं, यदि अकस्मात् वे किसी चित्र-प्रदर्शनी में पहुँच भी गये तो कुछ क्षण यहाँ-वहाँ घूमकर कमरे की चारों दीवारों, द्वारों में टँगे चित्रों के सुनहले फ्रेमों को देखकर बाहर चले आते हैं । यही क्या कम बात है ? प्रदर्शनी में आये और लोगों ने उन्हें देख तो लिया कि उन्हें भी चित्रकला से प्रेम है और उसका ज्ञान है । इससे अधिक वे कर ही क्या सकते हैं । कुछ अंश तक यह ठीक भी है । परन्तु इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि चित्रकला का वर्तमान समाज में कोई स्थान नहीं है और यदि यही स्थिति रही तो कदाचित् चित्रकला का नाम भी समाज भूल जायगा । वे भी आधुनिक सभ्य नागरिक हैं और यह है वर्तमान भारतीय समाज की प्रगति ।
इन कतिपय पंक्तियों से पाटकों का हृदय किंचित् दुःखित हुआ होगा, जिसका कारण स्पष्ट है । आधुनिक चित्रकला मनोवैज्ञानिक है, यद्यपि प्राचीन चित्रकला उसका अपवाद नहीं है । चित्रकला की वर्तमान प्रगति को यदि मनोवैज्ञानिक नहीं समझ पाये तो उसे कोई नहीं समझ पायेगा । आज चित्र को समझने के लिए चित्र का मनोविज्ञान समझना अत्यावश्यक है । आप कहेंगे, चित्र तो जड़ पदार्थ है, इसमें मन कहाँ ? परन्तु आप इसे भी अस्वीकार नहीं कर सकते कि चित्र निर्जीव होते हैं । इससे सभी सहमत होंगे कि चित्र, चित्रकार के मनोभाव का प्रतीक होता है । अतः चित्रकार के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के माध्यम से हम सरलतापूर्वक चित्रों के मनोवैज्ञानिक सत्य का साक्षात्कार करके ही वर्तमान चित्रकला की नयी धारा का स्वागत कर सकेंगे ।
आज से पहले भारत की चित्रकला अपने स्वर्णयुग को देख चुकी है, अपने अवसान को भी उसे देखना पड़ा है । अब वह नये युग में है और नया रूप लेने के लिए उत्सुक है । आज से पहले की चित्रकला भारत में धर्म-प्रचारक थी, और उसका गुणगान करना ही