तख्त पर बैठकर शराब की चुस्कियाँ लेता हुआ करता था । और तारीफ यह कि वह उसका आनन्द लेन के लिए अपन समाज के अन्य व्यक्तियों को भी निमंत्रित करता था । हजारों की तादाद में लोग इकट्ठा होकर इस आह का रसास्वादन करते थे ।
जरा कल्पना कीजिए कि आप कलाकार होते और नीरो के राज्य में जीवन-निर्वाह करते होते । एक दिन शेर के कटघरे में यदि आप डाल दिये जाते और शेर ने आपकी छाती में अपना नुकीला पंजा चुभाया होता, उस समय नीरो आपको कविता पाठ करने की आज्ञा देता तो आपकी क्या दशा होती? नीरो तो एक व्यक्ति था, कभी-कभी सारा समाज नीरो बन जाता है ।
यह सत्य है कि भावों के उद्वेग में ही कला की उत्पत्ति होती है, परन्तु भाव से कलाकार पैदा नहीं होते, कलाकार भाव पैदा करते हैं । एक भूखे से पूछिए कि कला कहाँ है तो कहेगा रोटी में, एक अंधे से पूछिए तो कहेगा अंधेरे में, राजा कहेगा महलों में और रंक कहेगा झोपड़ी में, राजनीतिज्ञ कहेगा राजनीति में, धार्मिक कहेगा धर्म में । अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति की जैसी मनोवृत्ति होगी उसी रूप में वह अपने वातावरण को समझेगा, जिस प्रकार लाल चश्मा लगा लेने पर सारी दुनिया लाल दीखती है । यह चश्मा कला का गला घोंटता है, सत्य पर परदा डाल देता है । सच्चा कलाकार वही है जो इस चश्मे को उतार फेंकता है और पैनी आँखों से सत्य की ओर देखता है । कलाकार भाव का गुलाम नहीं होता, भाव कलाकार का गुलाम होता है । वह रचना जो चश्मे के आधार पर हुई है, कभी सफल तथा सत्य या सुन्दर नहीं कही जा सकती । सच्ची कला की रचना तब होती है जब कलाकार कमल की भाँति कीचड़ में रहकर भी कीचड़ से ऊपर होता है और ऊपर रहकर भी अपनी जड़ उसी कीचड़ में रखता है, उससे भी अपनी खुराक लेता है । अर्थात् सच्चा कलाकार वह है जो नीचे रहकर भी ऊपर को जान ले और ऊपर होकर भी नीचे को पहचानता हो । वह समदर्शी होता है । वह भावों का गुलाम नहीं होता, भावों को वह उत्पन्न करता है ।
किसी विख्यात कथाकार से जब पूछा गया कि प्रेम सम्बन्धी कथा- साहित्य का निर्माण सबसे अच्छा किस समय होता है तो उसने कहा कि जब कथाकार ने प्रेम करना छोड़ दिया हो । जिस समय व्यक्ति स्वयं किसी के प्रेम में बँधा रहता है, उस समय यदि वह प्रेम पर कुछ लिखे तो वह प्रेम में अन्धा भी हो सकता है । जब वह प्रेम कर चुकता है और उससे काफी अनुभव प्राप्त कर लेता है, और स्वयं हृदय तथा मस्तिष्क से किये हुए अनुभव पर पुनः मनन करता है, तब उसे सच्ची अनुभूति प्राप्त होती है और तब उसकी रचना स्वस्थ तथा सुन्दर होती है, क्योंकि अब वह प्रेम का गुलाम नहीं है । कथाकार प्रेम में अन्धा होकर नहीं लिख रहे है, बल्कि प्रेम से ऊपर होकर प्रेम पर शुद्ध रूप से विचार कर रहा