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अन्तिम बात

उसके लिए बन्द हो जाता है। चित्रकला और कविता यद्यपि एक दूसरी से आज बहुत समीप प्रतीत होती हैं, पर उनमें आज भी मौलिक भेद हैं, इसे समझ लेना बहुत आवश्यक है।

संगीत, काव्य तथा चित्रकला, ये तीनों ललित-कलाएँ हैं, पर तीनों में अन्तर है, यद्यपि तीनों हृदय के गुणों से प्रभावित होती हैं और मस्तिष्क तक पहुँचती हैं। संगीत का आनन्द उसे सुनने में है, कविता का आनन्द उसे समझने में है, चित्रकला का आनन्द उसे देखने में है। सुनने, और समझने में अन्तर है। संगीत का आनन्द उसे मिल ही नहीं सकता जिमके कान ठीक नहीं, कविता का आनन्द वह ले ही नहीं सकता जिसका मस्तिष्क स्वस्थ नहीं, उसी भाँति आँखों के गुणों से जो पूर्ण नहीं वह चित्रकला का पूरा आनन्द नहीं पा सकता। अक्सर देखा गया है कि संगीतज्ञ चित्रकला का आनन्द नहीं ले पाते और उसी प्रकार कवि भी। इसका कारण यही है कि संगीतज्ञ तथा कवि को चित्रकला का आनन्द लेनेवाली आँखें प्राप्त नहीं या उसने अपनी इस शक्ति को परिमार्जित नहीं किया। संगीतज्ञ चित्रों में स्वर नहीं सुन पाता और कवि उसमें भाव नहीं खोज पाता तो आधुनिक चित्रकला से जूझने लग जाता है। वह यह मानने को तैयार नहीं कि संगीत की भाँति स्वर और कविता की भाँति भाव चित्रकला में नहीं होते और इसीलिए ये तीन कलाएँ हैं. यद्यपि ध्येय सबका आनन्द प्रदान करना है। साहित्यकार या कवि समझता है कि वह सबसे बड़ा कलाकार है क्योंकि वह भावों को समझ सकता है, भाव उत्पन्न कर सकता है, और कला में भाव ही सबसे ऊँची चीज़ है, अतः संगीत और चित्रकला कविता के आगे मामूली चीजें हैं। इसमें कविता की भाँति भाव या विचार नहीं होते। बहुत से कवि जो चित्र-रचना भी करते हैं, अपने को बहुत भाग्यशाली समझते हैं और साधारण चित्रकारों या संगीतकारों से अपने को अच्छा समझते हैं क्योंकि उनके चित्र बड़े भावपूर्ण होते हैं। चित्रकार और संगीतज्ञ की दृष्टि में ऐसे चित्र या संगीत का कोई महत्त्व नहीं जो कविता का अनुवाद हो। स्वर की परख जिसमें नहीं, सुन्दर दृष्टि जिसमें नहीं वह संगीतज्ञ तथा चित्रकार तो है ही नहीं और न वह संगीत या चित्र का कभी आनन्द ही ले सकता है। आधुनिक समय में लोग संगीत तथा चित्रकला को इसी दृष्टि से देखने का प्रयत्न करते हैं, जैसे कविता को, पर यह भूल है।

आधुनिक चित्रकला साहित्यिक दृष्टि से समझी नहीं जा सकती बल्कि देखकर ही उसका आनन्द लिया जा सकता है।

मुझे यहाँ एक छोटी-सी कहानी याद आ जाती है जिससे यह बात और अच्छी तरह प्रतिपादित होती है। एक बार करीब-सात आठ सौ वर्ष पूर्व एक ईरानी राजदूत भारतवर्ष में आया। उसे बादशाह का हुक्म था कि भारतवर्ष से वहाँ की अद्भुत चीजें साथ ले