सर्वग्राह्य होती है और कल्याणकारी होती है। आत्म-अभिव्यंजनात्मक चित्रकला के द्वारा चित्रकार अपने हृदय के उद्गार अपने चित्रों में रखता है। वह अपने हृदय की आत्मा की पुकार अपने चित्रों में सुनता है। उसे यह मालूम होता है कि उसकी आत्मा क्या कहती है, क्या चाहती है। उसे आत्म-दर्शन होता है । जो इसे भली-भाँति जानते हैं वे सदैव कल्याणकारी कार्यों में ही रत होते हैं और जीवन को आनन्दमय मानते हैं। जब मनुष्य अधिक भौतिकता या सांसारिकता में फँस जाता है तब उसे आत्मा की आवाज नहीं सुनाई पड़ती। उसका कार्य अटपटा होता है। पिछले महायुद्ध की दर्दनाक आवाजों ने यूरोपीय भौतिकवादी मनुष्यों का हृदय द्रवित कर दिया। ऐसे समय हृदय की आवाज तेज हो जाती है, और उसका बहुत प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है, वह अपने होश में आ जाता है। अपनी स्थिति का ध्यान उसे होता है। वह समझने लगता है कि उसकी असलियत क्या है। यूरोप में ऐसी स्थिति महायुद्ध के कारण आयी और उसका फल आत्म-अभिव्यंजनात्मक कला के रूप में प्रस्फुटित हुआ।
भारतवर्ष में सदियों से आत्मा और हृदय की आवाज में विश्वास रहा है। हमारे शास्त्र,, पुराण और उपदेशों में प्रात्मा का या हृदय का स्थान सबसे ऊँचा रहा है। "रसात्मकं वाक्यं काव्यम्" या "वियोगी होगा पहिला कवि" इसके दृष्टान्त हैं।
भारतवर्ष की चित्रकला सदैव से आदर्शवादी रही है। यहाँ की कला में यथार्थता भी है, पर यूरोप की यथार्थता की भाँति नहीं। यूरोप में इस प्रकार के यथार्थवादी कलाकारों की सदैव यह चेष्टा रही है कि वे बिलकुल वैसा ही चित्रण करें जैसा वे वस्तुओं को आँख से प्रकृति में देखते हैं। इंगलैण्ड का विख्यात चित्रकार कान्सटेबुल इसी मत का था। उन्नीसवीं शताब्दी भर यूरोप में इसी आधार पर यथार्थ चित्रों का निर्माण हुआ। परन्तु इस सदी के खत्म होने से पहले ही वहाँ आभासिक चित्रकला (इम्प्रेशनिज्म) का प्रादुर्भाव आरम्भ हो गया। यूरोपीय कला-आलोचक हर्बट रीड का कहना है— "चित्रकला प्रकृति की नकल न होकर एक (ट्रिक) चमत्कार हो गयी जिसके द्वारा प्रकृति की वस्तुओं को प्राभासित किया जाता था ताकि चित्र को देखकर प्रकृति का धोखा हो।" हम कह सकते हैं कि यूरोपीय चित्रकारों ने धोखे में विश्वास करना प्रारम्भ किया और अपने चित्रों द्वारा अपने समाज को भी धोखा दिया और सिखाया, स्वयं तो धोखे में पड़े ही और धोखा खाया भी। परिणाम यह हुआ कि धोखा अधिक दिन तक नहीं चल सका और सचाई की खोज आरम्भ हुई। आत्म-अभिव्यंजनात्मक चित्रकला का प्रादुर्भाव हुआ।
ऐसा धोखा भारतवासियों ने अपनी कला के इतिहास में कभी नहीं खाया। हाँ, अंग्रेजी आधिपत्य के समय की कला इस धोखे का शिकार जरूर हो रही थी। भारतीय संस्कृति अति