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काल्पनिक प्रवृत्ति

कल्पना कला की सृष्टि का आधार है। कला की रचना बिना कल्पना के संभव ही नहीं है। फिर तो हम कह सकते हैं कि सभी कला की शैलियाँ काल्पनिक होती है और इसके अतिरिक्त कोई दूसरी शैली नहीं हो सकती। आलंकारिक चित्रकला, विषय-प्रधान चित्रकला या सूक्ष्म चित्रकला सभी में कल्पना की आवश्यकता है। इसलिए सभी चित्रकलाएँ काल्पनिक हैं। इस प्रकार काल्पनिक चित्रकला को हम कोई विशिष्ट शैली नहीं कह सकते। परन्तु सुविधा के लिए आधुनिक युग के विभिन्न बहुमुखी चित्रकारों की कृतियों का मूल्यांकन कर सकने के हेतु हमें उनके चित्रों को विभिन्न कोटि में रखना ही पड़ता है, और उनका नामकरण करना पड़ता है।

काल्पनिक चित्रकला से हमारा तात्पर्य आधुनिक चित्रकला की उस शैली से है जिसमें चित्रकार प्रकृति की वस्तुओं का आँखों देखा वर्णन नहीं करता बल्कि कल्पना के आधार पर एक नये संसार की सृष्टि करता है। यह नया संसार, कलाकार का अपना संसार है, अर्थात् अनुभव, कल्पना, तथा रुचि के अनुसार ही वह प्रकृति की वस्तुओं में परिवर्तन करता है या उन्हें परिमार्जित करता है, जैसे मनुष्य की स्वर्ग की कल्पना या चन्द्रलोक की कल्पना इत्यादि। मनुष्य ने स्वर्गलोक देखा नहीं, चन्द्रलोक सचमुच कोई लोक होगा, जानता नहीं, पर वहाँ कैसा लोक होना चाहिए इसकी कल्पना करता है। एक शराबी यदि चन्द्रलोक की कल्पना करे तो वह उसे एक मधुशाला का रूप देगा और हाला, प्याला तथा शाकी ही उसे घूमते फिरते कल्पना में दृष्टिगोचर होंगे। इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार इन लोकों की विभिन्न कल्पना करेगा। यह कल्पना उसकी इच्छा का एक बाह्य रूप है।

इसी प्रकार चित्रकार भी स्वर्गलोक, स्वप्नलोक, या चन्द्रलोक की कल्पना कर सकता है। इसी के आधार पर वह चित्र बनाता है। शराबी की कल्पना की अपेक्षा चित्रकार की कल्पना क्रियात्मक होती है या उसे हम निर्माणकारी कल्पना कह सकते हैं। मान लीजिए, वह चन्द्रलोक की कल्पना करता है, इसका यह तात्पर्य नहीं कि जिन वस्तुओं को इस लोक में वह देखता है या पसन्द करता है उन्हीं को अधिक मात्रा में वह चन्द्रलोक में चित्रित करेगा।