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स्वप्निल प्रवृत्ति

है,जैसे गौतम बुद्ध की माता महामाया का स्वप्न, जिसमें उन्होंने एक श्वेत हाथी को शिशुगौतम के रूप में जन्म लेते हुए अपने यहाँ देखा। यह चित्र सारनाथ के चित्रकला बिहार में भी है। परन्तु प्राचीन कला में अधिकतर स्वप्नों का वर्णनात्मक रूप ही मिलता है। आधुनिक कला में चित्रकार किसी स्वप्न का वर्णन नहीं करता, प्रत्युत जान-बूझकर अपनी मन:-स्थिति को ही वह उस अवस्था में पहुंचाता है जैसी स्थिति स्वप्न पाने के समय होती है और उसी अवस्था में वह तत्पर हो चित्रांकन करता है। ये चित्र उसकी इस मनःस्थिति के प्रतीक होते हैं। इन चित्रों में साधारण चित्रों की अपेक्षा बुद्धिजनक, विवेकपूर्ण ज्ञान का अभाव रहता है अर्थात् साधारण मानसिक ज्ञान के विपरीत ही इसमें चित्रण मिलता है। इस प्रकार के विवेकहीन असाधारण चित्रों का प्रादुर्भाव जितना इस शताब्दी में हुआ है उतना पहले कभी नहीं हुआ। हम इस चित्रकला को विवेकहीन समझकर ठुकरा नही सकते क्योंकि आधुनिक बुद्धिवादी वैज्ञानिक युग ने ऐटम, विस्फोटक बम तथा सृष्टि-विलयकारक यंत्र और शस्त्र बना डालें है। इस प्रकार के बुद्धिवादी विकास से बचने का एक उपचार स्वप्निल चित्रकला भी है।

भारतवर्ष में इस प्रकार की स्वप्निल चित्रकला की शैली का प्रारम्भ श्री गगनेन्द्रनाथ ठाकुर से होता है। यद्यपि प्रारम्भ में बहुत थोड़े से चित्रकारों ने इस शैली को अपनाया, क्योंकि उसी समय डा० अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगाल से एक भिन्न ही प्रकार की शैली का प्रचार बड़े वेग से प्रारम्भ कर दिया था, गगनेन्द्रनाथ ठाकुर की कला का अधिक प्रचार न हो पाया और शायद उन्होंने इसके लिए प्रयत्न भी अधिक नहीं किया, परन्तु आज इस शैली से प्रभावित अनेकों नवयुवक कलाकार सामने आ रहें हैं। बंगाल के कल्याण सेन, बम्बई के जार्ज कीट, प्रयाग के रबी देव तथा काशी के राचशु इत्यादि उस क्षेत्र में काफी कार्य कर चुके हैं। डा० रवीन्द्रनाथ ठाकुर के भी बहुत से चित्र इसी भावना से प्रभावित रहे हैं। गगेन्द्रनाथ ठाकुर की 'श्वेत' नौका', कल्याण सेन का "स्वप्न मिलन" तथा राचशु का "मृत्यु के नेत्र" उल्लेखनीय हैं।

स्वप्नगत चित्रांकन करनेवाले चित्रकार अपने सामने चित्र बनाने की सभी सामग्रियाँ, लेकर शान्तचित्त बैठ जाते हैं और उमंग के झोंक में वे चित्रांकन प्रारम्भ कर देते हैं। उनकी तूलिका विद्युद्गति से चलती रहती है जब तक कि चित्र बनकर तैयार नहीं हो जाता। ऐसे चित्रों के बनाने में समय भी अधिक देना आवश्यक नहीं है। चित्रकार स्वयं नहीं जानता कि वह अपने चित्र में क्या बनाने जा रहा है। तूलिका चलती जाती है और कुछ रूप तथा प्राकार चित्र में बनते जाते हैं। चित्रकार स्वयं यह नहीं सोचता कि वह अब कौन-सा आकार बनाये। वह एक बनाता है, दूसरा अपने आप प्रारम्भ हो जाता है। उसे यह भी नहीं सोचना