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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ


आधुनिक भारत की चित्रकला अन्धकार में है। कुछ दिनों तक चित्रकारों ने अजंता, राजपूत और मुगल-चित्रकला को आधार मानकर कार्य किया। टैगोर स्कूल ने अपना सम्पूर्ण समय इसी में व्यतीत किया, पर यह ज्ञात न हो सका कि किन वैज्ञानिक आधारों पर ये चित्र निर्मित हैं। वैज्ञानिक की भाँति चित्रकार इन प्राधारों का निरूपण न कर सके, जिससे बंगाल विद्यालय या टैगोर विद्यालय की आधारशिला दृढ़ न हो सकी और वह नन्दलाल बसु तथा क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार ऐसे चित्रकारों के होते हुए भी अग्रसर नहीं हो पा रहा है, न आज के चित्रकारों का एक निश्चित पथ-प्रदर्शन ही कर पा रहा है। अनेकों चित्रकार आगे आ रहे हैं, पर कोई भी निश्चित मार्ग नहीं अपना रहा है। भारत की आधुनिक कला केवल एक उलझनमात्र-सी सिद्ध होती जा रही है। या तो चित्रकार यूरोप की आधुनिक कला का अंधाधुन्ध अनुकरण कर रहे हैं अथवा झूठ-मूठ प्राचीन चित्रकला के अनुयायी होने का दंभ भर रहे हैं। तात्पर्य यह कि कला का रूप विकृत हो गया है।

बीसवीं शताब्दी एक वैज्ञानिक युग है। आज के शिक्षित भारतीय चित्रकार युग से प्रभावित हो चुके हैं और अंधकार से बाहर निकलने के लिए व्याकुल हो उठे हैं। आशा है, शीघ्र ही उनको सत्पथ का दर्शन होगा और वे अपने उद्देश्य में सफल होंगे। इस समय उन पर सबसे बड़ा उत्तरदायित्व अन्वेषण का है। उन्हें अपनी प्राचीन भूली हुई कला के आधारों, मूलों को खोज निकालना होगा और उसी पर अपनी कला की आधारशिला स्थापित करनी होगी।

संगीत और चित्रकला में आन्तरिक एकता और समानता है। आज भी भारतीय संगीत अपना एक उच्च स्थान बनाये हुए है। इसका कारण सम्भवतः यही है कि वह अब भी अपने प्राचीन आधारों पर स्थित है और वैज्ञानिक ढंग पर आगे बढ़ रहा है। संगीत-कला के विषय में प्राचीन प्रमाण भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त हैं और उनकी प्राचीन परम्परा जीवित है। यदि हम चित्रकला के वैज्ञानिक प्राधारों का अन्वेषण नहीं कर पाते हैं तो हमें संगीतकला के विज्ञान से चित्रकला की तुलना कर सहायता लेनी होगी।

संगीतकला में जिस प्रकार स्वरों का एक विज्ञान और गणित होता है, उसी भाँति चित्रकला की भाषा, रंग तथा रूप का भी एक विज्ञान और गणित होना चाहिए। संगीतमें जैसे स्वरों के निश्चित मनोवैज्ञानिक प्रभावों का निरूपण है, उसी प्रकार हमें रंग और रूप के निश्चित मनोवैज्ञानिक प्रभावों को ढूँढ़ना तथा निश्चित करना पड़ेगा। इस प्रकार चित्रकला के सभी प्राधार वैज्ञानिक हो जायेंगे और उसमें एक अद्भुत शक्ति उत्पन्न हो जायेगी जिससे चित्रकला समाज की सेवा करते हुए देश के सांस्कृतिक स्तर को ऊँचा उठाने में भी