दर्शन, सभी विद्याओं में यथार्थवाद लहराने लगा। देवी-देवताओं, ऐतिहासिक महानुभावों के स्थान पर नग्न युवतियों, प्राकृतिक दृश्यों तथा भोग-विलास के दृश्यों के यथार्थ चित्र टँग गये।
राजा रवि वर्मा भारतीय थे। फिर भी उनमें भारतीय भावना तथा मर्यादा बाकी थी। उन्होंने देवी-देवताओं के चित्र बनाना न छोड़ा। चित्रकला-पद्धति में वे अवश्य यूरोप से प्रभावित हुए थे, पर चित्र भारतीय बनाते थे। यूरोपीय चित्रकला-पद्धति में जब किसी वस्तु का चित्र बनाना होता है तो उस वस्तु को सामने रख लिया जाता है और यथार्थता के साथ उसका अनुकरण किया जाता है। रूबेन्स ने जितने नग्न युवतियों के चित्र बनाये हैं मन गढन्त या काल्पनिक नहीं है। दिन-रात एक करके, रूबेन्स ने अपनी स्त्रियों को अपने सम्मुख करके, तब इन जीवित चित्रों की रचना की थी। यथार्थ चित्र बनाने के लिए यह आवश्यक होता है कि चित्रकार जिस वस्तु का चित्र बनाने जा रहा है, उससे भली-भाँति परिचित हो, उस वस्तु का अधिक से अधिक आनन्द उसने उठाया हो। जब तक इन वस्तुओं का पूरा भोग चित्रकार नहीं कर लेता तब तक उसके विचार पवित्र नहीं होते और यथार्थ चित्र भी नहीं बन सकते। रूबेन्स अपने माडेल्स का जब पूरा आनन्द ले चुकता था तब उनके चित्र बनाता था। उस आनन्द की मदिरा में चूर होकर ही वह सफल चित्र बना पाता था। बेचारे रवि वर्मा तो फिर भी भारतीय थे। उनके लिए यह आनन्द लेना कितना दुर्लभ रहा होगा, यह तो आज भी हम अनुभव करते हैं। इसीलिए भारतवर्ष में यथार्थवादी चित्रकारों में एक भी ऐसा न हुआ जो यदि रूबेन्स के टक्कर का न हो सकता, तो कम से कम, उसका अनुकरण करने का प्रयास ही करता। राजा रवि वर्मा को वेश्याओं को माडेल बनाना पड़ा। प्रत्येक चित्र बनाने के लिए माडेल आवश्यक था। राजा रवि वर्मा अधिकतर धार्मिक चित्र बनाते थे जैसे सीता, सावित्री, पार्वती इत्यादि। पर यथार्थ चित्रण करना आवश्यक था। वेश्याओं को सीता केसे वस्त्र तथा आभूषण पहनाकर उनको उसी मुद्रा में बिठाकर राजाजी चित्र बनाते थे। चित्रकार की कुशलता इसी में देखी जाती थी कि माडेल का चित्रण कहाँ तक यथार्थ हो पाया है। इस प्रकार राजाजी ने सती सीता, सावित्री, पार्वती, देवी सरस्वती, लक्ष्मी इत्यादि के अनेकों चित्र बनाये और भारतीय घरों को सुशोभित किया। उनके उपकारों से हम कभी उऋण नहीं हो सकते।
राजा रवि वर्मा के समय से लेकर आज तक यथार्थवादी विचार प्रत्येक भारतीय के मस्तिष्क में चक्कर लगाया करते हैं। आज भी बीच-बीच में रसिक जन पुकार उठते हैं, यथार्थ चित्रण के लिए। साधारण गाँवों की जनता इस यथार्थ का अधिक लाभ न उठा सकी,