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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

इसका खूब स्वागत किया। भारतीय कलाओं का ह्रास हुआ। यहाँ का प्रत्येक मनुष्य यथार्थ से परिचित कराया गया। साहित्य में, दर्शन में, कला में यथार्थवाद घुस आया। जिस प्रकार मधुशाला में साकी के पीछे लड़खड़ाते पाँवों से लोग नाचते फिरते हैं, उसी भाँति यथार्थवाद से लोग इस प्रकार चिपक गये जैसे गुड़ से चींटा। जीवन के प्रत्येक पहलू में यथार्थवाद समा गया।

चित्रकला के क्षेत्र में यथार्थवादी चित्रकार राजा रवि वर्मा हुए हैं। भारतीय कला, जिसका प्राण निकल चुका था, उसे पुनः जीवित करने के प्रयास में भारतीय चित्रकार राजा रवि वर्मा सबसे पहले आये। यथार्थवादी चित्रों का प्रचार इनके समय में जितना हुआ उतना न पहले कभी था, न बाद में हुआ । राजा रवि वर्मा ने धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक सभी प्रकार के यथार्थवादी चित्र बनाये। एक बार कैपकामोरिन से लेकर कश्मीर तक उनके यथार्थवादी चित्र फैल गये। जिस प्रकार अंग्रेजों के पहले भारत में शायद ही कोई ऐसा एक राज्य रहा हो जो लंका से हिमालय तक और बर्मा से अफगानिस्तान तक फैल सका हो, उसी प्रकार यह यथार्थवादी कला थोड़े से समय में सम्पूर्ण भारतवर्ष में व्याप्त हो गयी। राजा रवि वर्मा के चित्र प्रत्येक घर में टॅगे दिखाई पड़ने लगे। शायद इतना प्रचार यूरोप में रूबेन्स का भी न रहा हो।

पुराने रईस, राजा, महाराजा, सभ्य पुरुषों ने अपने-अपने महलों और घरों में जो प्राचीन भारतीय चित्र लगे थे, उतार फेंकना प्रारम्भ किया और राजा रवि वर्मा तथा अन्य इस भाँति के कलाकारों के चित्रों से घर को सजाने लगे। इनके घरों तथा महलों से उतारे हुए भारतीय चित्र गुदड़ी में नजर आने लगे, लोगों ने दो पैसे सेर के भाव से उसे मोल लिया, पुड़िया बाँधने के लिए। पर इन चित्रों से तो पुड़िया भी नहीं बँध सकती थी क्योंकि कड़े हाथ के बने कागज या भोजपत्र पर ही ये चित्र बनते थे। कहते हैं, भारत का बोझ इन चित्रों से हलका करने के लिए अंग्रेज इन्हें अपने यहाँ उठा ले गये जो आज भी यूरोप के म्यूजियमों को सुशोभित कर रहे हैं। अाज भारतवर्ष में उतने प्राचीन चित्र नहीं हैं जितने यूरोप में। राजाओं, महाराजाओं ने अपना बोझ हलका करने के लिए अपने राजमहलों, मन्दिरों की दीवारों पर बने प्राचीन चित्रों पर सफेदी पुतवा दी!

इस प्रकार यथार्थवादी चित्र नयी पृष्ठभूमि पर बनाये गये और उनका प्रादुर्भाव हुआ। भारतीय जनता ने अन्धकार को दूरकर यथार्थ को समझा। बच्चा-बच्चा यथार्थ को समझने लगा और प्रेम करने लगा। चित्रकला विद्यालय तथा प्रदर्शनियाँ यथार्थवादी चित्रकला से चमक उठीं। जनता पुनः प्रफुल्ल हो उठी। प्रत्येक सभ्य भारतीय नागरिक के घर में रूबेन्स, टर्नर, कान्सटेबुल सुशोभित हो उठे। यहाँ का साहित्य, कला, नीति,