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यथार्थवादी प्रवृत्ति

रूबेन्स का नाम यूरोपीय चित्रकला के इतिहास में अमर हो गया है। यथार्थवादी चित्रकला में उससे बढ़कर संसार में कोई दूसरा चित्रकार नहीं हुआ। उसके चित्रों में अधिकतर स्थूलकाय नग्न युवतियों के चित्र हैं। वह ऐसे चित्र बनाने में बड़ा आनन्द लेता था। उसके नग्न युवतियों के चित्र आँख के सामने जीवित हो उठते हैं। शरीर की गठन, रंग, तथा मांस-पेशियों को उसने इतनी यथार्थता के साथ चित्रित किया है कि दर्शक एक बार सिहर उठता है और इच्छा होती है कि वह अपनी ऊँगलियों से उनकी मांस-पेशियों को दबाये या छूकर देखे। आँख को धोखा हो जाता है, चित्रों के पात्र जी उठते हैं, और दर्शक का इन्द्रियजन्य ज्ञान जाग्रत हो उठता है। सचमुच इस दृष्टिकोण से संसार में इससे बढ़कर दूसरा कोई चित्रकार दृष्टिगोचर नहीं होता।

उन्नीसवीं शताब्दी में इङ्गलैण्ड में कान्सटेबुल तथा टर्नर दो चित्रकार यथार्थवादी चित्रकला में विख्यात हुए। कान्सटेबुल तथा टर्नर ने अधिकतर प्राकृतिक दृश्यों के चित्र बनाये और इनमें उन्होंने जो कुशलता प्राप्त की, शायद ही किसी यूरोपीय चित्रकार को मिली हो। कान्सटेबुल अधिकतर गाँवों के ही प्राकृतिक दृश्य चित्रित करता था। प्रकृति का चित्रण जितनी स्वाभाविकता के साथ उसने किया, दूसरा कोई चित्रकार न कर सका। यूरोपीय साहित्य में वर्डसवर्थ को जो स्थान दिया जाता है वही चित्रकला में कान्सटेबुल को। कान्सटेबुल के चित्रों में प्रकृति बोल उठती है। दृश्य का एक-एक तृण सजीव हो उठता है। दृश्य के वृक्ष हरे रंग के थोप नहीं मालूम पड़ते बल्कि झूमते हुए, लहराते हुए, खनकते हुए पत्तों के झुरमुट से प्रतीत होते हैं। ऐसा दृश्य शायद ही कोई अति निपुण फोटोग्राफर अपने कैमरे से खींच सके।

भारतवर्ष के दर्शन के इतिहास में मुश्किल से ही कहीं यथार्थवाद सुनायी पड़ सकता है। भारत ने प्रारम्भ से ही इस दृष्टिगोचर संसार को मिथ्या समझा। यहाँ सदैव से इहलोक और परलोक रहा। यहाँ प्रकृति को माया ठगिन कहा गया अर्थात् धोखा कहा गया। यहाँ कभी लोगों ने इस लोक में विश्वास ही नहीं किया। मनुष्य को सदैव यह जीवन नश्वर तथा मिथ्या बताया गया। बिलकुल यथार्थवाद का उल्टा। जिसे यथार्थवाद सत्य समझता रहा, उसे भारत ने मिथ्या कहा। इसी प्रकार भारत की कला में भी कभी यथार्थवाद शब्द नहीं आया। भारतवर्ष के चित्रकला के इतिहासमें एक भी स्थान ऐसा नहीं मिलता जहाँ यूरोप के यथार्थवाद के अनुरूप चित्रकला प्रचलित रही हो। बीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों के आधिपत्य-काल में भारत ने यथार्थवाद का नाम सुना। इससे परिचित हुआ। अंग्रेजों ने भारत की कला-कौशल की उन्नति तथा प्रचार की दृष्टि से यहाँ चित्रकला विद्यालय भी खोले और यथार्थवादी चित्रकला का प्रचार करना प्रारम्भ किया। यहाँ की जनता ने