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दार्शनिक प्रवृत्ति

समझे हुए रहस्य को सरल बनाकर प्राकृतिक रूपों में दर्शक के सम्मुख रखे। उसकी कल्पना उस दर्शन की परिधि से बाहर नहीं निकलती अपितु उसी की और पुष्टि करती है। काल्पनिक चित्रकार किसी दर्शन का गुलाम नहीं होता बल्कि अपनी कल्पना-शक्ति के आधार पर वह नवीन निर्माण करने का प्रयत्न करता है। वह एक नये संसार की कल्पना करता है। उसके सम्मुख जो भी वस्तु आती है उसे देखकर वह फिर कल्पना में लीन होता है और सोचता है कि इस वस्तु का रूप ऐसा होता तो अच्छा होता, या वह अपनी कल्पना-शक्ति के बल पर नयी व अनोखी वस्तुओं की कल्पना करता है और उनका एक अद्भुत रूप अपने चित्र में देता है। यूरोपीय विश्वविख्यात चित्रकार लियोनार्डो दा विंशी इस प्रकार का एक महान् काल्पनिक चित्रकार था। उसने अपनी कल्पना के बल पर, जब कि वायुयान, इत्यादि आधुनिक यातायात के माध्यम नहीं आविष्कृत हुए थे, इस प्रकार के उड़नेवाले वायुयान तथा यंत्रों को अपने चित्रों में निर्मित किया था। उसने बहुत से ऐसे जंगली जानवरों, पशु-पक्षियों के चित्र कल्पना से बनाये थे जो न उस समय प्रकृति में मिलते थे, न आज मिलते हैं।

आधुनिक भारत में दार्शनिक चित्रकार बहुत कम मिलते हैं। बंगाल-शैली के चित्रकारों में से डा० अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, नन्दलाल बोस, क्षितीन्द्र नाथ मजूमदार, असित हाल्दार तथा वीरेश्वर सेन इत्यादि के चित्रों में इस प्रकार के दार्शनिक चित्र मिलते हैं। मुख्यतः असित हाल्दार के प्रारम्भिक चित्र जैसे—"शिशिर और वसंत", "बालक और वद्ध" तथा उमर खैयाम सम्बन्धी चित्र। नन्दलाल बोस का—"डूबता सूर्य", क्षितीन्द्र मजूमदार का "यात्रा" तथा “श्रृंखलायुक्त स्वतंत्रता", अवनीन्द्र नाथ ठाकुर का "पाषाण हृदय", "बिखरते मोती", "जीवन-यात्रा का अन्त" तथा "समुद्र तट पर बालक" इत्यादि उल्लेख्य हैं।

इस प्रकार के दार्शनिक चित्र असित हाल्दार के चित्रों में अधिक मिलते हैं और उनके चित्रों में इस विचार धारा की पूर्ण प्रगति दिखाई पड़ती है। "बालक और वृद्ध" उनका एक विख्यात चित्र है। "शिशिर और वसंत" इसी चित्र का एक दूसरा रूप है।