उनके चित्रों में जैन, बौद्ध या बंगाल-शैली की छाप नहीं मिलती। उनके चित्रों द्वारा किसी दर्शन का संदेश नहीं मिलता। वे वयस्क होते हुए भी एक प्रगतिशील आधुनिक व्यक्ति थे। कविता से चित्रकला में उन्होंने अपने को अधिक स्वतंत्र पाया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि चित्रकला में दर्शन का होना आजकल आवश्यक नहीं समझा जाता। चित्रकार जान-बूझकर अपने चित्रों में दर्शन नहीं लाता। हाँ, अनजाने ही यदि दर्शक को दर्शन दिखाई पड़े तो कोई असंभव नहीं। चित्र के दार्शनिक आलोचक तो अबोध बालकों के चित्रों में ऊँचे दार्शनिक तत्त्व का होना भी संभव कर सकते हैं। गौतम बुद्ध ने शून्य में भी शून्यवाद का दर्शन खोल लिया। इस प्रकार तो दर्शन एक अद्भुत चमत्कारपूर्ण ज्ञान है।
इस प्रकार के अद्भुत, चमत्कारपूर्ण, रहस्यमय ज्ञान के जाल में एक बार फँसने पर निकलना कठिन हो जाता है। इसमें केवल चित्रकार ही नहीं फँसता बल्कि दर्शक भी। भारतवर्ष में चित्रकला का पूरा आनन्द न उठा सकने का एक कारण यह भी है कि यहाँ प्रत्येक व्यक्ति यदि इस रहस्य में स्वयं नहीं पड़ा है तो भी इससे परिचित करा दिया जाता है और चित्र को रहस्यमय समझकर उसकी ओर दृष्टि उठाता है। परिणाम यह होता है कि न चित्रों का रहस्य उनके सम्मुख खुलता है, न उन्हें आनन्द ही आता है।
दार्शनिक चित्रकला अधिकतर लाक्षणिक होती है। चित्रकार अपने दर्शन को प्रतीकों द्वारा चित्र में व्यक्त करता है। चित्रकार जीवन में सत्य का अनुभव करता है। सत्य एक सूक्ष्म वस्तु है—उसको चित्रित करने के लिए ये चित्रकार प्रकृति की और अन्य वस्तुओ से उसे खोज निकालते हैं और उन्हीं रूपों द्वारा अपने दर्शन को व्यक्त करते हैं। मनुष्य को एक अभिनेता समझिए जो संसाररूपी रंगमंच पर अभिनय करता है, या मनुष्य एक यात्री है, अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए वह पाप-पुण्य कर्मों का गट्ठर सँभाले निरन्तर चलता जाता है, या मनुष्य की वृद्धावस्था सन्ध्या है जो धीरे-धीरे मलिन हो जाती है, इत्यादि-इत्यादि। अर्थात् ऐसे चित्रों में जो भी वस्तुएँ चित्रित होती हैं वे केवल प्रकृति के रूप नहीं हैं, अपितु उनमें कोई अर्थ छिपा रहता है। यही चित्र मनुष्य के जीवनगत अनुभवों और सत्य के प्रतीक होते हैं। एक वस्तु की दूसरे वस्तु से तुलना कर चित्र में दर्शन का रहस्य रचा जाता है।
दार्शनिक तथा काल्पनिक चित्रों का भेद भी समझ लेना आवश्यक है। वैसे तो दार्शनिक चित्र भी कल्पना पर आधारित हैं, परन्तु फिर भी आधुनिक युग में दार्शनिक तथा काल्पनिक चित्र भिन्न-भिन्न होते हैं। दार्शनिक चित्रकार का प्रयत्न यह होता है कि वह एक