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दार्शनिक प्रवृत्ति

प्रादुर्भाव हुआ । मुगल-कला को भी दार्शनिक कोटि में गिनना निर्विवाद नहीं, परन्तु राज- पूत-चित्रकला इसका अपवाद नहीं । आधुनिक नवीन चित्रकला में तो हम स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं कि इसमें दर्शन है या नहीं।

भारतवर्ष में आज भी ऐसे अनेकों चित्रकार तथा चित्र-रसिक और आलोचक हैं जो दार्शनिक चित्रों को ही चित्र मानते हैं, जो स्वयं दार्शनिक चित्रकला में विश्वास रखते हैं और जो स्वयं भी दार्शनिक हैं। आनन्दकुमार स्वामी ने इसी पक्ष को कला सम्बन्धी अपनी प्रत्येक पुस्तक में बार-बार दुहराया है। प्रो० सी० गांगुली तथा अवनीन्द्रनाथ ठाकुर भी इसी विचार के रहे हैं । बंगाल-शैली इस दिशा में बहुत प्रयत्नशील रही। श्री क्षितीन्द्र नाथ मजूमदार, असित हाल्दार इत्यादि चित्रकारों ने इसी प्रयत्न में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया। परन्तु बंगाल-शैली के अन्तर्गत ही एक नयी चेतना का प्रादुर्भाव बड़े वेग से हो चुका है जिसने इस शैली को शिथिल कर दिया है । इस नयी चेतना के चित्रकारों में शायद दर्शन की मात्रा बहुत कम या नहीं हैं।

जो दार्शनिक होगा उसकी चित्रकला भी दार्शनिक होगी, ऐसा अनुमान किया जाय तो अनुचित न होगा। वर्तमान परिस्थितियों में पेट के प्रश्न के सामने दर्शन हवा हो जाता है । यही प्रश्न चित्रकार के सामने भी है--फिर आधुनिक चित्रकार दार्शनिक कैसे हो सकता है ? परन्तु दर्शन के पुजारी फिर भी चित्रकला में दर्शन देखना चाहते हैं। वे दर्शन से ही जीवन के सभी प्रश्नों को सरलता से हल करने का दावा करते हैं और कहते हैं कि आज भी भारत दर्शन की दृष्टि से संसार का सम्राट् है । यूरोप के चतुर राजनीतिज्ञ इस चुनौती के सामने नीति-पटुता से सिर झुका देते हैं और कहते हैं-भारतीयो ! दर्शन तुम्हारा गौरव है, तुम्हारा अंग है, तुम्हारा भोजन है, इससे कभी विमुख न होना । अंग्रेजों ने भारत में दार्शनिक कला को खूब प्रोत्साहन दिया और जब तक वे भारत में रहे यहाँ की कला दर्शन की सीढ़ी पर निरन्तर चढ़ती रही।

डा० रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बहुत से चित्र बनाये । इन चित्रों को भारत में बहुत थोड़े व्यक्ति चित्र समझते हैं। उनमें भी कुछ तो वे हैं जो यह सोचकर कि रवीन्द्र एक महान् कवि तथा दार्शनिक थे, इसलिए उनके चित्रोंमें भी महान् दर्शन भरा होगा, उन्हें रहस्य- मय समझकर प्रशंसा करते हैं । परन्तु समाज का एक बड़ा भाग उनके चित्रों का आनन्द लेने से वंचित है। रवीन्द्रनाथ आधुनिक नवीन चित्रकला शैली से प्रभावित थे तथापि उनके चित्र बंगाल-शैली से भिन्न हैं। दार्शनिक होते हुए भी जो चित्र उन्होंने बनाये हैं, वे दर्शन के लिए नहीं, अपितु आत्म-अभिव्यक्ति के लिए और सहज-निर्माण-प्रवृत्ति की प्रेरणा से ।