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कला और प्राधुनिक प्रवृत्तियाँ

तक पहुँचने का मार्ग निश्चित करता है, उस मार्ग पर चलने का सिद्धान्त बनाता है और उसी प्रकार उसकी कार्य-प्रणाली में परिवर्तन होता है । सभी बातें निश्चित हो जाती हैं । उसकी सफलता भी निश्चित हो जाती है। कला के कार्य का भी यही मार्ग हो जाता है, और उसमें सफलता का आधार दृढ़ हो जाता है ।

भारतवर्ष की सम्पूर्ण कलाएँ आदर्शवादी रही हैं और इसीलिए उनके सिद्धान्त, उनकी कार्य-प्रणाली सभी निश्चित रही हैं। भारतीय कला के आदर्श, उनके सिद्धान्त तथा कार्य- प्रणाली का निश्चित विवरण हमें अपने वेदों, पुराणों तथा शास्त्रों में प्राप्त होता है, यद्यपि इस प्रकार के ग्रन्थों की खोज भली-भाँति नहीं हुई है । कला के ऊपर लिखे गये ग्रन्थ बहुत कम प्राप्त है, परन्तु विविध पुराणों में इन आदर्शों तथा सिद्धान्तों का उल्लेख किया हुआ मिलता है । इन पुराणों में वास्तू-विद्या, शिल्प-विद्या तथा चित्र-विद्या के नाम से बहुत से अव्याय मिलते हैं, जिनसे हम अपने भारतीय चित्रकला के आदर्श तथा सिद्धान्त जान लेते इ ।अभी तक जो खोज हुई है उसमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण 'विष्णु पुराण' तथा श्रीराम- कुमार का 'चित्र-लक्षणम्' है । वैसे तो अन्य सभी पुराणों में कला के बारे में लेख प्राप्त हैं, पर चित्रकला की दृष्टि में 'विष्णु-पुराण' तथा 'चित्र-लक्षणम्' महत्त्वपूर्ण हैं।

आदर्शवादी चित्रकला में यद्यपि उसका आदर्श, सिद्धान्त तथा कार्य-प्रणाली निश्चित रहती है, पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि कला में स्वतंत्रता नहीं रहती। आदर्शवादी कला में कल्पना का बड़ा महत्त्व होता है और प्रत्येक व्यक्ति को पूरी स्वतंत्रता होती है कि वह अपने अनुभव के अनुसार कल्पना करे, परन्तु दृष्टिकोण निश्चित होना चाहिए, अर्थात् कल्पना का कोई निश्चित प्राधार होना चाहिए। कल्पना के योग से प्रादर्श की और भी पुष्टि होती है। मनुष्य की कल्पना का भी लक्ष्य होना चाहिए। कल्पना के आधार पर मनुष्य पुनः प्रादर्श की सृष्टि करता है, परन्तु यह आदर्श कोई नया आदर्श नहीं होता। परम्परागत आदर्शों का एक नया अनुभवगत स्वरूप होता है । ऐसे व्यक्तिगत रूप बनाने के लिए प्रत्येक मनुष्य को स्वतंत्रता है। यह नया अनुभव प्राचीन आदर्शों से भिन्न न होगा, केवल व्यक्ति के लिए अनुभूति होगी, जिसे वह नये रूप में समाज के सम्मुख उपस्थित करेगा।

आदर्शवादी कलाकार अपनी अनुभूति के अनुसार एक आदर्शलोक की कल्पना करता है। यह आदर्शलोक उसके वर्तमान वातावरण से परे होता है। ऐसी कल्पना वही करता है जो अपने वर्तमान वातावरण से सन्तुष्ट नहीं होता। अधिकतर मनुष्य अपने वर्तमान वातावरण से सन्तुष्ट नहीं होते, परन्तु साधारण मनुष्य अपने को उपायहीन समझकर