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आदर्शवादी प्रवृत्ति

मनुष्य बुद्धि की शक्तियाँ लेकर संसार में जन्म लेता है। अपनी बुद्धि से संसार का अनुभव करता है। सबसे महान् अनुभव उसे आनन्द या सुख पाने की लालसा में होता है । यह अनुभव एक ऐसा अनुभव है जिसके इर्द-गिर्द मनुष्य के दूसरे अनुभव चक्कर काटा करते हैं । सुख पाने के चक्कर में मनुष्य तमाम वस्तुओं का अनुभव करता है और यह निश्चय करना चाहता है कि सबसे अधिक सूख की प्राप्ति उसे कहाँ और किसमें होगी। यही निश्चय या विचार उसका आदर्श बन जाता है, जिसकी खोज में वह भ्रमण करता फिरता है। जिसका जैसा अनुभव होता है, वैसा आनन्द मिलता है और उसी के अनुरूप उसका आदर्श बनता है । इस प्रकार आदर्श केवल एक सूक्ष्म निश्चित विचार है, जो अनुभव पर आधारित है। जो व्यक्ति या समाज अपना एक निश्चित विचार तथा आदर्श बना लेता है और उसीके अनुकूल कार्य करने लग जाता है, उसी को आदर्शवादी पुरुष या समाज कहते हैं। चित्रकार भी इसी प्रकार अपने अनुभव पर आधारित अपना एक आदर्श बना लेता है और वह एक आदर्शवादी चित्रकार कहलाता है । ऐसा भी होता है कि एक ही समय में कई चित्रकार या चित्रकारों का समाज अपना एक ही प्रादर्श बनाये, तब उस समय की चित्रकला आदर्शवादी चित्रकला कह- लाती है। प्रत्येक देश तथा समय में अक्सर एक ही आदर्श का सर्वग्राह्य प्रचार हो जाता है, जैसे ब्राह्मण-काल में ब्राह्मण आदर्श, बुद्ध-काल में बौद्ध आदर्श, तथा आधुनिक काल में जनतंत्र तथा साम्यवादी आदर्श । युग-युग में, देश-देश में, इसी प्रकार विभिन्न आदर्श समाज के बन जाते हैं और व्यक्ति इन्हीं आदर्शों के अनुसार कार्य करता है । हम कह सकते हैं, प्रत्येक देश तथा काल में केवल आदर्शवादी कला का ही प्रादुर्भाव हुआ करता है या प्रत्येक कला आदर्शवादी है।

परन्तु संसार में ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो जीवन भर कार्य करते रहते हैं, उन्हें अनुभव भी होता जाता है, परन्तु कभी भी वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँचते, न उनका कोई आदर्श बन पाता है । हम कार्य करते हैं, परन्तु यह विचार नहीं कर पाते, क्यों ? हम नहीं जानते