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प्रतीकात्मक प्रवृत्ति

जगह प्रतीकात्मक चित्रकला का प्रचार रहा है । पश्चिमी देशों में जैसे-जैसे विज्ञान का प्रचार होता गया, वैसे-वैसे वहाँ की कला यथार्थवादिता की ओर अग्रसर होती गयी। विज्ञान का प्रभाव एशियाई देशों पर भी पड़ा और यहाँ भी यथार्थवादी दृष्टिकोण प्राधु- निक चित्रकारों का हुआ, परन्तु यथार्थवादी चित्रकला का यहाँ कभी विकास न हो पाया। आज भारत की तथा अन्य एशियाई देशों की चित्रकला प्रतीकात्मक अधिक है।

भारतवर्ष में प्राचीन चित्रकला अधिकतर धार्मिक ही रही है । अपने देवी-देवताओं, उनकी शक्तियों तथा चरित्र को दर्शाने के लिए यहाँ के चित्रकारों ने प्रतीकात्मक शैली ही अपनायी और उसमें महान् सफलता पायी । विष्णु, शिव, ब्रह्मा तथा इनके अवतारों के चित्र प्रतीकों के सहारे ही विकसित हुए। इन देवी-देवताओं को कभी किसीने नहीं देखा, इसलिए इनका यथार्थ चित्र तो बन नहीं सकता, केवल कल्पना, वेदों तथा शास्त्रों और पुराणों के वर्णन के अनुसार प्रतीकों से इनकी रचना की गयी। प्राचीन भारतीय चित्रकला में इस प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग हुआ है । ज्ञान की देवी सरस्वती को धवल वर्ण दिया, क्योंकि श्वेत रंग ज्ञान का प्रतीक है। इसी प्रकार देवी सरस्वती को हंस वाहन मिला, क्योंकि हंस विवेक तथा बुद्धि का प्रतीक है, भुजाओं में वीणा, पुस्तक तथा कमल रखा, क्योंकि ये कलाओं, विज्ञानों तथा विद्याओं के प्रतीक है। इसी प्रकार सारे देवी-देवताओं के चरित्र-चित्रण तथा शक्तियों को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया गया। इस प्रतीकात्मक शैली का जितना पूर्ण विकास भारतवर्ष में हुआ है, शायद और किसी देश में नहीं।

उन्नीसवीं शताब्दी भर युरोप में यथार्थवादी कला का प्रचार और विकास होता रहा और पूर्वी देशों में प्रतीकात्मक कला का ही प्रादुर्भाव रहा । इस शताब्दी तक आक्रमणों और राजनीतिक परिवर्तनों के कारण यूरोपवासी पूर्वी देशों की कलाओं के सम्पर्क में आये । इससे पहले उनको यह ज्ञान भी नहीं था कि उनके अतिरिक्त अन्य देशों में भी चित्रकला तथा ललित कलाओं का विकास हो चुका है । यहाँ की कला के सम्पर्क में आने पर उन्हें पता लगा कि चित्रकला केवल बाह्य सांसारिक रूपों की नकल नहीं है बल्कि उससे ऊपर भी कुछ है। विख्यात यूरोपीय चित्रकला-पालोचक मिस्टर हर्बट रीड अपनी पुस्तक 'आर्ट नाउ' में लिखते हैं-

"लोगों ने एकाएक अनुभव किया कि चित्रकला बाह्य सांसारिक रूपों का पुननिर्माण नहीं हो सकती, बाह्य सांसारिक स्वरूपों की केवल एक झलक हो सकती है ।" "उदाहरणार्थ, उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशाब्द में जापान से आये हुए चित्रों