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कला और प्राधुनिक प्रवृत्तियों

मनुष्य की अभिव्यक्ति में चित्र-रचना अति प्राचीन है । वैसे तो बालक पैदा होते ही मुह से स्वर निकालता है और मुद्राएँ बनाता है अपनी अभिव्यक्ति के लिए, और इसमें सफलता भी पाता है, परन्तु इससे वह साफ-साफ प्रारम्भ में अपनी सब इच्छानों को व्यक्त नहीं कर पाता । जैसे-जैसे बालक बढ़ता है वह इशारों, मुद्राओं तथा स्वरों और शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग करता जाता है । परन्तु आदि काल में जब मनुष्य जंगली था और भाषाओं का कोई निश्चित स्तर नहीं रहा होगा, मनुष्य अपनी सारी इच्छाओं को स्वर या शब्द के द्वारा प्रकट नहीं कर पाता था। उस समय सबसे आसान यही मालूम पड़ा होगा कि जिस वस्तु को वह पाना चाहता है उसे ही यदि दिखाकर माँगे तो लोग तुरन्त उसका तात्पर्य समझ लेंगे। इसका भी प्रयोग उसने किया होगा, जिसको शिक्षा-सिद्धान्त में 'डाइरेक्ट मेथड आफ टीचिंग' कहते हैं । परन्तु यह भी अधिक सफल न हुआ होगा, क्योंकि यदि इच्छित वस्तु उसके पास रहती ही तो वह उसका प्रयोग कर ही लेता। व्यक्त करने की आवश्यकता ही क्या थी ? इसलिए जब उसे ऐसी वस्तु की आवश्यकता हुई होगी जो उसके आसपास प्राप्त नहीं है तो सबसे सरल तरीका उसका चित्र बनाकर ही व्यक्त करना प्रतीत हुआ होगा और इस प्रकार चित्रकला का जन्म हुआ।

आदि काल में वस्तु का चित्र बना देना भी इतना आसान न रहा होगा कि इच्छित वस्तु का पूर्ण चित्र बनाया जा सके । इतना अभ्यास, इतनी शक्ति, इतना ज्ञान मनुष्य में नहीं रहा होगा, परन्तु इसका प्रयत्न मनुष्य ने करना प्रारम्भ किया । वस्तु को पूर्ण रूप में यथार्थता के साथ व्यक्त करने का प्रयत्न किया, परन्तु इतनी शक्ति न होने के कारण वह केवल वस्तुओं का प्रतीकात्मक रूप ही बना सका होगा । ऐसे प्रतीक जिनको देखकर इच्छित वस्तु का बोध हो सके। धीरे-धीरे इन प्रतीकों को मनुष्य ने स्मरण कर लिया होगा और ये अभिव्यक्ति में प्रयुक्त होने लगे। इसी को आज हम प्रतीकात्मक चित्र- कला का नाम देते हैं । आगे चलकर सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह प्रतीक वस्तु के रूप के और भी समीप होते गये और वस्तु और उसके प्रतीक के रूप में भिन्नता बहुत कम हो गयी। ऐसी चित्रकला को यथार्थवादी चित्रकला कहा गया। परन्तु आधुनिक युग में अनेक विज्ञानों तथा विद्याओं के आविष्कार के बाद भी मनुष्य ने देखा कि वस्तु बिल- कुल यथार्थ रूप में चित्रित कभी नहीं की जा सकती। हम चाहे जितना यथार्थ रूप वस्तु का बनायें, वह रहता केवल एक प्रतीक ही है उस वस्तु का । इसलिए चित्रकला प्रतीका- त्मक ही कही जा सकती है, चाहे वह यथार्थ रूप के जितना भी समीप हो।

भारतवर्ष में चित्रकला सदैव प्रतीकात्मक तथा लाक्षणिक रही है । चित्रकला में यथार्थवादिता लाने का प्रयत्न बहुत ही कम हुअा। पश्चिम के बनिस्बत पूर्वी देशों में सभी