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कला और प्राधुनिक प्रवृत्तियां

यही बात अब बहुत से विख्यात आधुनिक वैज्ञानिक भी मानते हैं कि सारी सृष्टि की वस्तुओं के रहस्य को समझना शायद मनुष्य की शक्ति के परे है। केवल एटम बम के आविष्कार ने मनुष्य की स्थिति को डाँवाडोल कर दिया है, सारी राजनीति जटिल हो गयी है। इसी से हम भविष्य का विचार कर सकते हैं। जितना हम सृष्टि के रहस्य का उद्घाटन करेंगे, उसका प्रकोप उतने ही वेग से समाज पर पड़ेगा । शायद इसीलिए प्राचीन मनुष्य प्रकृति की पूजा करता था और उसकी जटिलता तथा रहस्य के प्रपंच में नहीं पड़ता था। प्राचीन विद्वानों ने इसीलिए सृष्टि को या ईश्वर को अगम कहा है और यह भी कहा है कि इसे बुद्धि से नहीं, प्रेम तथा भक्ति से समझा जा सकता है। आज भी ग्रामीण प्रकृति का पूजन करता है, प्रकृति का प्रतिस्पर्धी या दुश्मन नहीं बनता, अपितु प्रकृति के साथ चलने का प्रयास करता है । हिम- मण्डित पर्वतों पर भी मनुष्य रहता है। सूर्य की तीव्र धूप भी सहन कर लेता है, फिर भी हिमालय तथा सूर्य की पूजा करता है। वह जानता है, प्रकृति यदि उसे हानि पहुँचाती है तो साथ ही उसे लाभ भी देती है ।

इसी प्रकार चित्रकला में यदि चित्रकार प्रकृति की नकल करे या उसका प्रतिस्पर्धी बने तो समस्या जटिल ही होगी। चित्रकला तो मनुष्य की अभिव्यक्ति का एक माध्यम मात्र है, सरल भाषा में अपने भावों को व्यक्त करना है। यदि चित्रकार यह चाहता है कि उसकी कला की भाषा को समाज भी समझ सके और उसका आनन्द ले सके तो उसे सरल बनना पड़ेगा, शायद उसी भाँति जैसा कि अति प्राचीन कला का रूप था।

जिस प्रकार यह कोई नहीं कह सकता कि आदिम निवासी आज से कम सुखी थे, उसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनकी कला आधुनिक कला से कम प्रभावोत्पादक थी। शायद उस समय मनुष्य अधिक सुखी था और उसकी कला का रूप भी अधिक सामाजिक था।