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कला का सामाजिक रूप

रूप (पेड़ संख्या १) धारण कर लिया। यूरोप में उन्नीसवीं शताब्दी तक प्राकृतिक रूपों में भावों को व्यक्त करने का बहुत प्रचार हुआ । परन्तु उसके बाद प्रगति फिर पीछे की औरर लौटी और बीसवीं शताब्दी में कला अधिकांशतः फिर सूक्ष्म हो गयी है।

कला के इतिहास में हम जितना पीछे जाते हैं, कला का रूप उतना ही सरल और सूक्ष्म दिखाई पड़ता है । सन् १९२० ई० में पंजाब में हरप्पा की खोदाई तथा सिन्ध में मोहनजोदड़ो की खोदाई में टूटे-फूटे बर्तनों के ऊपर बने जो चित्र तथा चित्रकारियाँ मिली है, उन्हें देखने से उपर्युक्त कथन की सत्यता और भी पक्की हो जाती है। उन चित्रों में पाये जाने वाले रूप बहुत ही सरल तथा सूक्ष्म हैं । अधिकतर सरल रेखाओं तथा छाया- चित्र के द्वारा ही निर्मित रूप दिखाई पड़ते हैं। वस्तुओं के रूप कम से कम रेखाओं में पूर्णतः प्रारम्भिक रूप ही दिखाई पड़ते हैं, फिर भी बड़ी आसानी से उसको पहचाना जा सकता है । वस्तुओं का रूप इतना सरल और सूक्ष्म है कि उसमें केवल वे ही वस्तुएँ दिखायी गयी हैं जिन्हें कोई भी पहचान सकता है । रूप को जरा भी मिश्रित नहीं होने दिया गया है, यद्यपि फिर भी वे रूप अपना भाव पूरी तरह व्यक्त करते हैं। यही कला की शुद्ध भाषा का ध्येय है ।

आधुनिक मशीन युग तक पहुँचते-पहुँचते चित्रकला का रूप बहुत मिश्रित हो गया है और उन रूपों को आसानी से पहचानना कठिन हो गया है। इसीलिए आधुनिक कला से सारा समाज आनन्द नहीं ले पाता, परन्तु कुछ चुने हुए व्यक्ति ही, जिनका मस्तिष्क मिश्रित वस्तुओं को भी पहचान सकता है, उसका आनन्द ले पाते हैं। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो गया है कि चित्रकला की परिभाषा फिर से प्रारम्भ हो, अर्थात् जिस भाँति अति प्राचीन काल में चित्रकला का जो कुछ रूप था, कुछ उसी प्रकार का रूप फिर प्रारम्भ हो । पाषाण-युग में मनुष्य का मस्तिष्क सरल और सादा था, वह सोच भी नहीं सकता था, इसलिए अपने भावों को व्यक्त करने के लिए वह केवल सरल रूप ही बना पाता था। किन्तु आज मनुष्य का मस्तिष्क इतना जटिल और व्यस्त हो गया है कि उसमें सादगी की आवश्यकता है। सादगी का यह तात्पर्य नहीं कि कला प्राकृतिक हो। इसे सादगी नहीं कह सकते । प्रकृति का रूप तो स्वयं इतना जटिल है कि सहस्र विज्ञान के आविष्कार के पश्चात् भी उसका रहस्य मनुष्य की बुद्धि के परे है। मनुष्य समझता था कि विज्ञान के बल पर वह सृष्टि या प्रकृति पर विजय पा लेगा, किन्तु जितना ही वह इस चक्कर में पड़ता है उतनी ही उसकी समस्या जटिल होती जा रही है, और यही विज्ञान प्राज मनुष्य के मस्तिष्क की जटिलता का कारण है।