बीसवीं शताब्दी में राजा रवि वर्मा के पश्चात् चित्रकला का जो नया रूप सामने आया, वह डा० अवनीन्द्रनाथ के बंगाल स्कूल का स्वरूप था। १६४२ के आन्दोलन के पहले तक उसका काफी प्रचार रहा, यद्यपि अमृत शेर गिल तथा यामिनी राय की कला ने उससे काफी पहले कला के क्षेत्र में एक नया आन्दोलन खड़ा कर दिया था जिसका विकसित रूप अब देखने को मिल रहा है। पिछले १५ वर्षों में भारतीय चित्रकला ने एक अजीब करवट ली। बंगाल स्कूल, उसके कला-स्रोत, श्री नन्दलाल बोस, खितीन मजुमदार, असित हाल्दार से होते हुए गोपाल घोष तथा पुलिन बिहारी दत्त तक पहुँचते-पहुँचते हिचकियाँ लेने लग गया। शायद और आगे अब नहीं घसीटा जा सकता। जो भी हो भारतवर्ष के चारों कोनों में बंगाल स्कूल ने एक बार कला का प्रचार कर दिया और इसका सारा श्रेय डा० अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और उनके सहयोगियों को निश्चित है।
अब परिस्थिति बिलकुल भिन्न है । प्रचार का कार्य तो भारत सरकार कर ही रही है, और वह होगा ही, परन्तु अब भारतीय चित्रकला को अपना एक सुडौल रूप धारण करना पड़ेगा। वह रूप कैसा हो, यही भारतीय आधुनिक चित्रकला की समस्या है। इसी समस्या के विभिन्न हल आधुनिक चित्रकला के विभिन्न रूप हैं। किसी देश या समय की कला उस देश या उस समय का प्रतिबिम्ब होती है, या जैसा देश अथवा समय वैसी ही उसकी कला होती है । इस समय भारत की कला ही नहीं, सभी देशों की कला अपना एक सुडौल रूप निर्माण करने की योजना में व्यस्त है । क्या रूप होगा, कोई नहीं कह सकता। उसी भाँति आधुनिक भारतीय चित्रकला का सुडौल रूप कैसा होगा, अभी कोई नहीं कह सकता। प्रत्येक आधुनिक चित्रकार को इसी नये रूप के निर्माण में लगना है और भारतीय आधुनिक नव-चित्रकार इस कार्य में किसी से पीछे नहीं दिखाई पड़ रहे हैं, यद्यपि अड़चनें अनेक है।
आधुनिक युग में चित्र-कला के अनेक रूप हो गये हैं । बीसवीं शताब्दी के पहले भी ऐसे अनेक रूप चित्रकला में खोजने पर प्राप्त होते हैं, परन्तु एक साथ एक ही समय में कला