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कला और हस्तकौशल


हस्तकौशलोपयोगी सामग्रियों का एक अनिश्चित रूप और आकार होता है, जिसे शिल्पी सँवार कर एक निश्चित स्वरूप में जन्म देता है। यहाँ रूप और वस्तु का वैपम्य दर्शनीय है। अप्रस्तुत वस्तु जो पिंडाकार थी, उसे ढालकर लौहकार ने फावड़े या हथौड़े का रूप दे दिया।

हस्तकौशलों की एक विशेषता यह भी होती है कि वे सभी अन्योन्याश्रित होते हैं। कपास से एक व्यक्ति सूत कातता है, दूसरा वस्त्र बुनने का कार्य करता है। दर्जी उम वस्त्र को कोट के रूप में परिवर्तित कर देता है। उसके यहाँ बुनकर का वस्त्र, प्रस्तुत सामग्री, कोट में परिणत करने के लिए अप्रस्तुत सामग्री हो जाती है। इस प्रकार सूत कातना, वस्त्र बुनना और वस्त्र सीने का काम ये सभी हस्तकौशल हैं और एक दूसरे से समाश्रित तथा संबंधित है। हस्तकौशल संबंधी अन्यान्य गवेषणात्मक विवेचन संभाव्य है, परन्तु यहाँ यह कह देना आवश्यक प्रतीत होता है कि उपरिलिखित विचार यदि किसी हस्तकौशल के उपयुक्त नहीं है तो वह हस्तकौशल न होकर कुछ और है और संभव है वही कला हो।

हस्तकौशल के और भी प्रकार हो सकते हैं, जैसे बढ़ई या मोची का काम। इन सभी हस्तकौशलों का लक्ष्य काम में आनेवाली विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करना है। दूसरे कोटि का हस्तकौशल कृषि, उद्यानसेवा इत्यादि है, जिनका लक्ष्य उत्पादन करना अथवा पालन-पोषण करना है जो हम जीवनयापनमें सहयोग प्रदान करते हैं। तृतीय कोटि का हस्तकौशल वैद्यक, शिक्षण या युद्धविद्यादि है—जिसका लक्ष्य मनुष्य की शारीरिक तथा मानसिक अवस्थाओं में एक प्रकार का परिवर्तन करना है। परन्तु इन सब में एक समानता है। सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। मनुष्य की मानसिक चेतनाएँ वस्तु की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्कण्ठित रहती हैं। मानसिक चेतनाओं और इच्छात्रों की आवश्यकताओं के संकेत पर ही शिल्पी रचनाएँ करते हैं। अर्थात् मनुष्य की विभिन्न मानसिक अभिलाषाओं की पूर्ति करना ही शिल्पी का कार्य है। यदि कवि भी मनुष्य की मानसिक वृत्तियों की तृप्ति के निमित्त रचना करता है, तो उसकी कविता भी कलाकृति न होकर हस्तकौशल होगी। यदि सभी चित्रकार, मूर्तिकार, नृत्यकार तथा संगीतज्ञ मनुष्य की अभिलाषाओं की पूर्ति मात्र के लिए ही रचना करते हैं तो वे सब निस्सन्देह शिल्पी है।

प्रत्येक हस्तकौशल की एक स्वीय कार्यप्रणाली होती है, जिसे बिना शिक्षा प्राप्त किये अथवा अभ्यास किये हुए अपनाना कठिन है। हस्तकौशल संबंधी शस्त्रों का उचित प्रयोग बिना अभ्यास के नहीं पा सकता। बढ़ई का काम कोई नहीं कर सकता, यदि वह रन्दा,