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कला और हस्तकौशल

कला और हस्तकौशल ये दो शब्द ऐसे हैं जिनका लोग प्रायः एक ही अर्थ समझते हैं। बढ़ई के काम को भी जिसे हस्तकौशल कहना चाहिए, लोग कला कहते हैं और चित्रकला को हस्तकौशल से सम्बोधित करते हैं। कला की बृहत् परिभाषा में किसी भी मानवीय सौष्ठव को कला कह सकते हैं, परन्तु सुविधा के लिए वह भी दो भागों में विभक्त की गयी है। एक को कला और दूसरे को उपयोगी कला या हस्तकौशल के नाम से संबोधित करते है। परन्तु आज कला और हस्तकौशल दो भिन्न विषय समझे जाते हैं, क्योंकि दोनों की उपयोगिता में भिन्नता है। अतः इन दोनों का भेद समझने के लिए हमें सर्वप्रथम हस्तकौशल का परिचय प्राप्त कर लेना चाहिए।

हस्तकौशल में कार्यारम्भ के पूर्व शिल्पी को ज्ञात रहना चाहिए कि उसे क्या निर्माण करना है। एक बढ़ई को ज्ञात है कि उसे आज एक कुर्सी (पीठासन) बनाना है। उस वस्तु के आकार अथवा स्वरूप का चित्र उसके हृदय में पूर्व अभ्यास द्वारा अंकित रहता है। उस वस्तु के परिमाण का भी परिज्ञान उसे रहता है और वह अपना कार्य आरम्भ करता है। ऐसा कदापि संभव नहीं है कि कुर्सी बनाते-नाते बढ़ई उसे मेज में परिणत कर दे। वह जानता है कि उसे क्या बनाना है और वह वही बनाता है।

हस्तकौशल में सर्वप्रथम लक्ष्य आता है। काम करते समय लक्ष्य का ध्यान रखते हुए वहाँ तक पहुँचने के लिए किन कार्य-प्रणालियों का योग लेना पड़ेगा शिल्पी सुविचारपूर्वक प्रयोग करता जाता है। अर्थात् काम करने की विधि पहले आती है और अन्त में उसी से लक्ष्य की प्राप्ति भी हो जाती है हस्तकौशल सम्बन्धी काम की प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत सामग्रियों में भी विभेद होता है। अप्रस्तुत सामग्री, जैसे पेड़ की टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ी, स्वर्णकार का सोना इत्यादि, शिल्पी हस्तकौशल का काम ऐसी ही किसी अप्रस्तुत सामग्री को लेकर आरम्भ करते हैं और अन्त में उसका स्वरूप कुछ और हो जाता है। अप्रस्तुत सामग्री जनित वस्तु उपयोगी वस्तु बन बैठती है। शिल्पी को प्रस्तुत वस्तु बनाने के पूर्व, अप्रस्तुत वस्तु के संरक्षण की आवश्यकता होती है।